कभी दिन तो कभी रात ढूँढता था
कभी सुबह का मसीहा बनाता था
कभी शाम की दुल्हन बनाता था
कभी भरी दोपहर में चाँद दिखाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था ..................
कभी तमन्नाओं की पायल पहनाता था
कभी आस के बिस्तर पर सुलाता था
कभी ख्वाब सा मुझे सजाता था
कभी गुलाब सा खिल जाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था ....................
कभी चिंदियों सा बिखर जाता था
कभी सुनहरी धूप सा मुरझाता था
कभी आसमां सा शरमाता था
कभी सांसों सा धड़क जाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था ......................
कभी धरा के कंगन बनाता था
कभी परिंदों सा चोंच लडाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था..................
मेरा अतीत अपना वर्तमान ढूँढता था
शायद वो मुझमे कोई मकां ढूँढता था
कोई तो बता दे इक बार
वो मुझमे क्या ढूँढता था ................
कभी सुबह का मसीहा बनाता था
कभी शाम की दुल्हन बनाता था
कभी भरी दोपहर में चाँद दिखाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था ..................
कभी तमन्नाओं की पायल पहनाता था
कभी आस के बिस्तर पर सुलाता था
कभी ख्वाब सा मुझे सजाता था
कभी गुलाब सा खिल जाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था ....................
कभी चिंदियों सा बिखर जाता था
कभी सुनहरी धूप सा मुरझाता था
कभी आसमां सा शरमाता था
कभी सांसों सा धड़क जाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था ......................
कभी चाँद को जूडे में सजाता था
कभी सितारों की नथनी बनाता था कभी धरा के कंगन बनाता था
कभी परिंदों सा चोंच लडाता था
वो मुझमे क्या ढूँढता था..................
मेरा अतीत अपना वर्तमान ढूँढता था
शायद वो मुझमे कोई मकां ढूँढता था
कोई तो बता दे इक बार
वो मुझमे क्या ढूँढता था ................
46 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा!!
वो शायद अपना अस्तित्व ढूँढता है...कौन जाने!!
आदरणीय वंदना जी..
नमस्कार
इतने सारे खूबसूरत एहसास एक साथ ...
कैसे समेटे इन्हें एक टिप्पणी में
बहुत ख़ूबसूरत हमेशा की तरह ...!
Hi..
Tujhme apna aks liye wo..
Khud ko Dhundha karta hoga..
Tujhe sajakar, tujhe hansakar..
Wo har roz nirakhta hoga..
Preet esi ko kahte hain jab..
'Main' na rahta kisi ke man main..
Sansen 'uski' chalti rahti..
Jeevan sang uske bhi tan main..
Sundar bhav..
Deepak..
रहिमन हीरा कब कहे, लाख टका है मोल!
इसी उत्तर के तलाश में सारी उमर निकल जाती है..... बढ़िया कविता..
aek sundr pyaar kaa bhtrin chitrn achchi mnzr kshi he bdhai. akhtar khan akela kota raajsthan . akhtar khan akela kota rajsthan
bahut gahan bhavon ko sanjoye umda prastuti .
सुबह का मसीहा,शाम की दुल्हन , तमन्नाओं की पायल, वाकई दिल को छू लेने वाले प्रतीकों से सजी एक सुंदर कविता. आभार.
vo sirf pyar dhundhta tha
khubsurat rachna
..
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...... अजब है तलाश का द्वन्द
बहुत ही सुन्दर ...यह तलाश ...।
bahut achche bhaw ki kavita hai....
मेरा अतीत अपना वर्तमान ढूँढता था
शायद वो मुझमे कोई मकां ढूँढता था
बहुत खूबसूरत बिम्बों से अपनी बात सहजता से लिखी है ...सुन्दर अभ्व्यक्ति ...
जीवन विरोधाभासों का संगम है ....यहाँ व्यक्ति की अपनी -अपनी तलाश है ..सब कल्पना में जीते हैं ..और यथार्थ को नजरंदाज करते हैं .....आत्मविभोर करती प्रस्तुति
jo bhi dhundhta tha............mujhe lagta hai wo khud se jayda pyar karta tha...:)
kya kahen...ek dum se niruttar kar deti hai aapki har post!!
हर कोई हर किसीमें कुछ न कुछ ढूँढता है ... सुन्दर !
खुबसुरत एहसासों से सजी बहुत ही सुंदर रचना......
सुन्दर सी रचना ....अच्छी लगी.
______________________________
'पाखी की दुनिया' : इण्डिया के पहले 'सी-प्लेन' से पाखी की यात्रा !
वह खुद को ही ढूंढ रहा होता है।
वाह वन्दना जी,कर्म सारे पवन जी के और कवितानुमा बनाकर श्रेय आप ले रही हैं।
सुंदर......
वो खुद को ही ढूंढता है शायद ..बहुत खूब.
वाह..उत्कृष्ट भाव वंदना जी.. कभी हम अपने अहसासों को दूसरों में महसूस करने की कोशिश करते हैं..शायद यही हाल रहा होगा..
स्त्री को नमन करती एक रचना
http://rajey.blogspot.com/ पर
यह रचना तो वेलेंटाइन डे को समर्पित होनी चाहिए । सुन्दर ।
शायद स्वयं की ही तलाश रही होगी? बहुत ही उत्कृष्ट रचना.
रामारम.
बहुत ही सुंदर
bhut sunder prstuti
dhoondhne vale ko bhi shaayad ye pata nahin hoga ki vo kya dhoondh raha hai.....
aaj yahan ,kal vahan....
bas kuchh khoj raha hai-kya????
koi usi se poochhe....!!
bahut khoob poem
and bahut hi shandar blog
check my blog also
and if you like it please follow it
http://iamhereonlyforu.blogspot.com/
बहुत ही सुंदर कविता ..
कुछ इधर की कुछ उधर की
शारीरिक संबंधों को सहमती देनी
जौनपुर शिराज़ ए हिंद भाग १
वो मुझे क्या ढूंढता था ...
शायद अपना मकां ढूंढता था ...
सवाल और जवाब दोनों ही तो हैं यहीं !
अच्छी गज़ल !
सारे एहसास को आपने एक कविता मे ढाल दिया है। बेहद ही उम्दा।
व्यक्ति स्वयं का बिम्ब औरों में ढूढ़ता रहता है।
रुनझुन में गूंजता एक सप्तरंगी गीत.
वो मुझे क्या ढूंढता था ...
शायद अपना मकां ढूंढता था ...
सवाल और जवाब दोनों है, पर अस्तित्व को ढूंढने का ये प्रश्न अनबुझ पहेली सा है... यथार्थवादी रचना..
भाव और लय दोनों दृष्टि से कविता बहुत ही मनमोहक बन पडी है...
मेरा तो आग्रह होगा की आप इस सिलसिले तो जारी रखें...
वंदना जी, आपका अंदाजे बयां सचमुच गजब का है। बधाई स्वीकारें।
---------
ब्लॉगवाणी: ब्लॉग समीक्षा का एक विनम्र प्रयास।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति| धन्यवाद्|
bahut hi badhiya, nice lines..
सुन्दर और भावपूर्ण कविता के लिए बधाई।
व्यक्ति स्वयं का बिम्ब औरों में ढूढ़ता रहता है।
मेरा अतीत अपना वर्तमान ढूँढता था
शायद वो मुझमे कोई मकां ढूँढता था
कोई तो बता दे इक बार
वो मुझमे क्या ढूँढता था .............
...pyarbhare jajbaaton ko bahut hi masumiyat se saarhtak dhang se prastut kar aapne man kee gahrayee mein dubkar sawal kiya hai.... yaksh prashn yah har kisi ke liye....
sundar bhavbhivykti.
इस कविता में सुंदर बिम्बों का प्रयोग किया है आपने।
रचना अच्छी लगी।
बहुत बड़ा प्रश्न है ये ... इंसान को कभी कभी खुद भी पता नहीं चल पाता की वो क्या चाहता है ... अच्छी रचना है ..
शायद आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार के चर्चा मंच पर भी हो!
सूचनार्थ
एक टिप्पणी भेजें