खुले विचारों
के साथ
स्वच्छंद उड़ान
भरती औरत
माँ बनते ही
वो भी एक
बेटी की माँ
उस पर
जवान होती
बेटी की माँ
के सभी
खुले विचार
ना जाने कब
दरवाज़े की
चूल में
फँसकर
चकनाचूर
हो जाते हैं
आधुनिकता का दंभ
स्वच्छंद विचारों
की खुशबू
कब कपूर सी
तिरोहित हो जाती है
पता भी नहीं चलता
और फिर
वहाँ रह जाती
है सिर्फ माँ
एक ऐसी माँ
जो अपनी
जवान होती
बेटी को
समाज के
नरभक्षियों
के हाथों से
बचाने की
फिक्र में
रात भर
सो नहीं पाती
ऊपर से हँसती
मुस्कुराती
खिलखिलाती
पर भीतर ही भीतर
दहशत में जीती
एक दकियानूसी माँ
कब बन जाती है
पता ही नहीं चलता
हर निगाह में
उसे सिर्फ
भयावह डरावने
खूँखार चेहरे
नज़र आते हैं
तब तक
जब तक वो
उसके हाथ
पीले नहीं कर देती
40 टिप्पणियां:
आपने एक संवेदनशील माँ का ज़िक्र किया है, जिसकी आधुनिकता में भी संस्कारों के पाजेब होते हैं....आज की अंधी आधुनिकता में फिक्र कहाँ !
एक माँ के दिल की भावना को आपने शब्द दिए है ! आभार और बधाइयाँ एक बेहद उम्दा रचना के लिए !
जब तक वो उसके हांथ
पीले नहीं कर देती,
बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजी बेहतरीन रचना ।
वन्दना जी आपको अनेकश: बधाई । आपने यथार्थ का चित्रण करते हुए प्रेरणा भी दी है ।
मां के संवदनशील ह्रदय का अच्छा वर्णन ।
और तब जाकर-
पता चलता है
कि यह डर
यह ख़ौफ़
यह आशंका
कुछ ख़त्म नहीं हुआ
हादसे की परछाइयों से
निकल पाने तक
एक चुप्पी
इन्तज़ार सी -
क्योंकि
पिक्चर अभी बाक़ी है दोस्त!
वंदना जी खुशी हुई कि आज अपने एक नए विषय को उठाया है। कविता सचमुच में एक ऊंचाई पर पहुंचती है। लेकिन अंत में अचानक वह नीचे आ जाती है। मेरे हिसाब से कविता का इससे बेहतर अंत हो सकता था। जिसमें समाज का वह चेहरा और ज्यादा अनावृत होता जिसकी बात कविता करती है। वह औरत जो निकलना चाहती है रूढि़यों और संकीर्ण मानसिकता से बाहर। बाहर निकलने के लिए उसे अपनी आंखें,अपना दिमाग खोलना होगा। अपनी वर्जनाओं को तोड़ना होगा। लेकिन बेटी की मां बनते ही वह फिर से उसी खोल में चली जाती है। लेकिन उसका अंजाम क्या है, यह इस कविता का अंत होना चाहिए। अन्यथा तो आप जिस समाज के बरअक्स उस मां को खड़ा करती हैं ,वह न केवल खुद को बल्कि अपनी बेटी को भी उसी समाज को सौंपकर निश्चिंत हो जाती है। और कविता का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। उद्देश्य है इस समाज का चेहरा सामने रखना।
बहरहाल आपकी कविता के बहाने मैं यह सब कह पाया,शुक्रिया।
मेरे मत में कविता का अंत इस तरह हो सकता था-
तब तक
जब तक कि वो
उसके हाथ
अनजाने ही बाकायदा उनमें से
किसी एक के हाथ नहीं सौंप देती।
तब तक
जब तक वो
उसके हाथ
पीले नहीं कर देती
--
एक महिला का सार्थक चिन्तन!
--
जिम्मेदारी का आभास हो तो समय से
सारे् कार्य पूरे हो जाते हैं!
@himanshu ji aur @rajesh ji
मै भी समाज की इसी विसंगति की ओर इंगित करने की कोशिश कर रही हूँ।
Yathrth se bhari sachhi kavita .. Adhunikta ke daur mein bhi yahi haal hai....
रश्मि जी ने इस कविता पर टिप्पणी करते हुए एक और बात कही कि इस अंधी आधुनिकता में फ्रिक कहां। मैं आदर के साथ दो बातें कहना चाहता हूं। एक, आधुनिकता अंधी नहीं है शायद हम अंधे होकर आधुनिक होने की कोशिश में लगे हैं। दूसरी बात संस्कारों की पाजेब जब तक पाजेब रहे अच्छी बात है। लेकिन यही पाजेब कब बेडि़यों में बदलने लगती है,इस पर ध्यान देने की बात है।
अपने दायित्वों का निर्वहन करने की सोच माँ की होती है ... बहुत ही संवेदनशील भावप्रधान उम्दा रचना......
Vandna,Rashmi ji se sahmat hun..! Rachana to samvedansheel haihi!
सच्चाई से लिखी गयी रचना को नमन सारगर्भित रचना बधाई
एक निर्मम सत्य है.. एक कलंकित अहसास.. सिर्फ कविता नहीं बल्कि नंगा यथार्थ है..
sundar kavita. iss samay ko theek-theek samajhane ki koshish bhi hai. ek stree hi iss tarah ki chintaon se gujarati hai. aur maan...? sachmuch ek nari maan banane ke baad doosare nazariye se dekhati hai apne hi chantan ko.
अच्छी अभिव्यक्ति। सार्थक चिंतन।
आधुनिकता अपनाई तो उसका मोल भी चुकाना होगा!
गुड खा कर गुलगुले से परहेज़ कैसा! बच्चे को "Good Morning!" बोलोगे तो तैयार रहो सुनने के लिये, "I donot agree with you!You are so old fashioned!!"
हमें जीवन से वो ही मिलेगा जिसका हम खुद चयन करेंगे! ’दलिया’'Kellogs' से इस लिये हार गया क्यों कि वो उत्तम पौष्टिकता होते हुये भी, पकाने में मेहनत और Patience मांगता है! आधुनिक मां के पास दोनों नहीं है!
"मैं कोई झूंठ बोलियां!" ’कोई न! जी कोई न!!!!"
बाकी सब भी इसी तरह समझा जा सकता है, जो आधुनिक मां/बाप और बच्चों के बीच घट रहा है!
एक यथार्थवादी कविता...सच है एक बेटी की माँ आज भी यही सोचती है...आज तो हाथ पीले होने के बाद भी भरोसा नहीं होता की कब कौन भेदिया कहाँ छुपा हुआ है...पर ज़िंदगी है तो आगे बढ़ना ही होगा...चाहे डर कर या संशय में ...
bahn vndnaa ji bhut khubsurt prstuti ort ki schchaayi yhi he ort teri yhi khaani fta he aanchl or aankon men he paane ort teri yhi haani ghurte hen log vhi jiski shrn men tu jati he lutte he vhi jinke paas friyaa tu lekr jati he ort teri yhi khaani lutaa he aanch sehmi he aaankhen aankhon men he paane or luti he jvaani . akhtar khan akela kota rajsthan
jeevan ke shool, waise ke waise saja diye aapne
बहुत ही संवेदनशील भावप्रधान उम्दा रचना......
:)
नारी मन के बदलते पहलूओं को उजागर करती रचना
बहुत सुन्दर.......
वंदना जी
आज आपने फिर से चौका दिया है
आज सुबह जब सोकर उठा तो मैंने देखा एक चिड़िया अपने बच्चों के साथ इधर-उधर घूम रही थी.
आपकी कविता ने उस चिड़ियां की याद दिला दी.
वन्दना, बहुत अच्छी अभिव्यक्ति। एक कटु सत्य लिख दिया है तुमने।
maa ka dwand yahan jhalak rhah hai ! parivesh ke anukul vyawhaar pichdrapan to nahi ! saarthak rachna !
सत्य है ... बहुत सुन्दर तरीके से आपने एक औरत के जीवन में बदलाव से जुड़े मानसिक बदलाव को उकेरा है ...
SEEDHEE-SADEE BHASHA MEIN SEDHE-
SADHE BHAAV.BADHAAEE AUR SHUBH
KAMNAAYEN.
आपकी रचनाएँ सदैव ही सुन्दर होती हैं
---
गुलाबी कोंपलें
आपने एक संवेदनशील माँ का ज़िक्र किया है, जिसकी आधुनिकता में भी संस्कारों के पाजेब होते हैं....आज की अंधी आधुनिकता में फिक्र कहाँ !
जब तक वो
उसके हाथ
पीले नहीं कर देती
शायद यह एक पड़ाव है जहाँ फिक्र को हस्तांतरित कर दिया जाता है
बेहतरीन रचना माँ के एहसास को बयाँ करती
so touchy!
so touchy!
कब बन जाती है वह सिर्फ एक माँ ...
दहशत में जीती ...
ईमानदार कविता ...!
आज समाज में घूम रहे दरिंदों की वजह से एक बेटी की मां की रातों की नींद उड़ जाती है...जब तक उसके हाथ पीले नहीं कर देती...तब तक वह चैन से सो नही सकती। सच है।...भावपूर्ण रचना
भावपूर्ण रचना....आज एक बेटी की मां का सच
कडवी सच्चाई से रूबरू करवाती आप की ये कविता विलक्षण है...बधाई..
नीरज
जीवन की सच्चाई बिना किसी लाग लपेट के.......... खूबसूरत अभिव्यक्ति
kya baat hai ji
aapko bhi chinta lag gai
vicharon ko bahut sundar shbdon main bandha hai.
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