मेरे संवेदनहीन पिया
दर्द के अहसास से विहीन पिया
दर्द की हर हद से गुजर गया कोईऔर तुम मुस्कुराकर निकल गए
कैसे घुट-घुटकर जीती हूँ मैं
ज़हर के घूँट पीती हूँ मैं
साथ होकर भी दूर हूँ मैं
ये कैसे बन गए ,जीवन पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
जिस्मों की नजदीकियां
बनी तुम्हारी चाहत पिया
रूह की घुटती सांसों को
जिला न पाए कभी पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
आंखों में ठहरी खामोशी को
कभी समझ न पाए पिया
लबों पर दफ़न लफ्जों को
कभी पढ़ न पाए पिया
ये कैसी निराली रीत है
ये कैसी अपनी प्रीत है
तुम न कभी जान पाए पिया
मैं सदियों से मिटती रहीबेनूर ज़िन्दगी जीती रही
बदरंग हो गए हर रंग पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
आस का दीपक बुझा चुकी हूँ
अपने हाथों मिटा चुकी हूँ
अरमानों को कफ़न उढा चुकी हूँ
नूर की इक बूँद की चाहत में
ख़ुद को भी मिटा चुकी हूँ
फिर भी न आए तुम पिया
कुछ भी न भाए तुम्हें पिया
कैसे तुम्हें पाऊँ पिया
कैसे अपना बनाऊं पिया
कौन सी जोत जगाऊँ पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
दर्द के अहसास से विहीन पिया
दर्द की हर हद से गुजर गया कोईऔर तुम मुस्कुराकर निकल गए
कैसे घुट-घुटकर जीती हूँ मैं
ज़हर के घूँट पीती हूँ मैं
साथ होकर भी दूर हूँ मैं
ये कैसे बन गए ,जीवन पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
जिस्मों की नजदीकियां
बनी तुम्हारी चाहत पिया
रूह की घुटती सांसों को
जिला न पाए कभी पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
आंखों में ठहरी खामोशी को
कभी समझ न पाए पिया
लबों पर दफ़न लफ्जों को
कभी पढ़ न पाए पिया
ये कैसी निराली रीत है
ये कैसी अपनी प्रीत है
तुम न कभी जान पाए पिया
मैं सदियों से मिटती रहीबेनूर ज़िन्दगी जीती रही
बदरंग हो गए हर रंग पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
आस का दीपक बुझा चुकी हूँ
अपने हाथों मिटा चुकी हूँ
अरमानों को कफ़न उढा चुकी हूँ
नूर की इक बूँद की चाहत में
ख़ुद को भी मिटा चुकी हूँ
फिर भी न आए तुम पिया
कुछ भी न भाए तुम्हें पिया
कैसे तुम्हें पाऊँ पिया
कैसे अपना बनाऊं पिया
कौन सी जोत जगाऊँ पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
31 टिप्पणियां:
"ख़ुद को भी मिटा चुकी हूँ
फिर भी न आए तुम पिया
कुछ भी न भाए तुम्हें पिया
कैसे तुम्हें पाऊँ पिया
कैसे अपना बनाऊं पिया
कौन सी जोत जगाऊँ पिया
मेरे संवेदनहीन पिया"
बहुत सुन्दर।
अन्तरमन की व्यथा का अच्छा चित्रण किया है।
ek dard le kar kaise ji lete hain log ..aap ka dard bahut apnaa sa lagta hai
aap ko aapne vicharo ko bhej diya
.....aisaa mahsus huaa aap tak nhi phuncha
आपने तो गजब की प्रस्तुती की है पीया के बारे में
रूह की घुटती सांसों को
जिला न पाए कभी पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
वाह...बहुत भावपूर्ण रचना...बधाई...
नीरज
"Zindagee aur kuchh bhee nahee, teree meree kahanee hai"...itnahee kahungee...
दर्द की हर हद से गुजर गया कोई
और तुम मुस्कुराकर निकल गए
एहसास की यह सुन्दर कविता बहुत खूबसूरत है.
wah vandana ji...
wo gaana yaad aa gaya...
"teri do takiya di anukri main..."
बहुत ही खुब .........
वन्दना जी इस कविता के माध्यम से आपने समाज के एक ऐसे सच को अपनी विषय वस्तु बनाया है जिसे महसूस करते हुये रोन्गटे खडे हो जाते है.
स्त्रियो की कोमल सवेदनाये तेजी से भागती हुई भौतिकवाद की ओर उन्मुख सामाजिक व्यवस्था के बीच दम तोड रही है, उनकी कोमल भावनाये एक पुरुष के चरणो पर चारदीवारी के बीच सिसककर रोज दम तोड रही है,उसकी अपेक्षाये याचक की मुद्रा मे पति और पति की भूमिका को शारीरिक अपेक्षा मात्र मे के रूप मे चित्रित करने वाली सामाजिक व्यवस्था से कुछ कह रही है, वह अब तो कुन्ठित सी हो गयी है, पर आज हम बहरे हो चुके है, हम उनकी कोमल भावनाओ के साथ खेल रहे है और शायद इसीलिये प्रत्येक १० मे से एक परिवार टूट रहा है.
स्त्रिया अपने पति से मूल आवश्यकताओ के अलावा सम्पूर्ण भावनात्मक सुरक्षा चाहती है और मुझे लगता है कि आप यह सन्देश देने मे इस कविता के माध्यम से समर्थ हुई है.
सादर
राकेश
बहुत खूब। धन्यवाद
वाह कितना सुन्दर लिखा है। सच आप भावों को सही से पकडकर सुन्दर शब्दों से लिख देती है। यह रचना भी पसंद आई।
एक नयी दिशा दी है आपने पिया के प्रति कविता की प्रस्तुति के लिए.....
हार्दिक बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
कैसे अपना बनाऊं पिया
कौन सी जोत जगाऊँ पिया
बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना . ....
bahut khoob , vandana ji, dard men lipti bhavpurn rachna, ek aisi sachai ujagar karti , jo shayad aap jaisi kaviyitri hi kar sakti hai. badhaai.
virah ki vyatha ki acchi abhivaykti...
मुझे तो इस बात पर आश्चर्य लग रहा है आखिर मुझ पर ऐसा घिनौना इल्ज़ाम क्यूँ लगाया गया? मैं भला अपना नाम बदलकर किसी और नाम से क्यूँ टिपण्णी देने लगूं? खैर जब मैंने कुछ ग़लत किया ही नहीं तो फिर इस बारे में और बात न ही करूँ तो बेहतर है! आप लोगों का प्यार, विश्वास और आशीर्वाद सदा बना रहे यही चाहती हूँ!
बहुत ही ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने ! बधाई !
मन की थाह को न पढ़ पाने वाले पिया के प्रति
अपने अंतर मन की उकताहट का बखूबी वर्णन
किया गया है इस मार्मिक कविता में
"जिस्म की बात नहीं थी ,
उनके दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तय करने में
वक़्त तो लगता है.."
बस...
दिल्लगी और दिल-की-लगी में इतना-सा
फर्क तो है ही
खैर...अछे लेखन के लिए अभिवादन स्वीकारें
---मुफलिस---
नूर की इक बूँद की चाहत में
ख़ुद को भी मिटा चुकी हूँ
फिर भी न आए तुम पिया
कुछ भी न भाए तुम्हें पिया
कैसे तुम्हें पाऊँ पिया
कैसे अपना बनाऊं पिया
कौन सी जोत जगाऊँ पिया
मेरे संवेदनहीन पिया......
नारी मन की भावना को अच्छी तरह से लिखा है आपने ........... संवेदन हीन पिया शायद आज samaaj में badhte जा रहे हैं ..... नारी को भी आज jaagna होगा ........ समय से seekhna होगा ........ सुन्दर रचना है
ख़ुद को भी मिटा चुकी हूँ
फिर भी न आए तुम पियाnice
पिया डांट का मुरीद लगता है :-)
सुंदर रचना.
it is nice dear friend
akhilesh
please visit us--
http://katha-chakra.blogspot.com
क्या कहें ? तारीफ करें तो किस अल्फाज़ को सहेजे ?
nice post....
achchhi kavita hai.
कैसे तुम्हें पाऊँ पिया
कैसे अपना बनाऊं पिया
कौन सी जोत जगाऊँ पिया
मेरे संवेदनहीन पिया
अन्तर्मन की कसमसाहट को बहुत खूबसूरती से शब्द दिये हैं आपने.
बिरहन की व्यथा.....दिल को छू गई
prem ko ahsaaso ko ek mazbooti deti hui rachna .. nayika ka saravsya apne naayak ke liye hai ..ye kahkar aapne bahut achi abhivyakti di hai ..
badhai
ये कैसी अपनी प्रीत है
तुम न कभी जान पाए पिया
मैं सदियों से मिटती रही
वाह.... विरह की सुन्दर व्यथा....
नूर की इक बूँद की चाहत में
ख़ुद को भी मिटा चुकी हूँ
फिर भी न आए तुम पिया
कुछ भी न भाए तुम्हें पिया
कैसे तुम्हें पाऊँ पिया
कैसे अपना बनाऊं पिया
कौन सी जोत जगाऊँ पिया
मेरे संवेदनहीन पिया......
वन्दना जी देर से आयी मगर फिर भी दुरुस्त आयी आज कल जरा व्यस्त हूँ बहुत भावमय विरह वेदना है नारी के अन्तर्मन् की व्यथा बहुत बडिया अभिव्यक्ति है शुभकामनायें
बिलकुल निराले अंदाज़ की नज़्म
सौंदी माटी की ख्श्बू जैसी
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