कृपया गुणीजन ध्यान दें ----
कवि का धर्म होता है अपने लेखन से समाज मे जागृति पैदा करना ये जानते हुए भी कुछ ऐसे भावों से रु-ब-रु हुयी हूँ कि खुद आश्चर्यचकित हूँ ……अब आप ही लोग मार्गदर्शन करें क्या सही और क्या गलत है या ऐसे भावों का जन्म भी होता है ........अब आपकी अदालत में
हताशा पंख पसारे
कवि का धर्म होता है अपने लेखन से समाज मे जागृति पैदा करना ये जानते हुए भी कुछ ऐसे भावों से रु-ब-रु हुयी हूँ कि खुद आश्चर्यचकित हूँ ……अब आप ही लोग मार्गदर्शन करें क्या सही और क्या गलत है या ऐसे भावों का जन्म भी होता है ........अब आपकी अदालत में
हताशा पंख पसारे
चुपके सा आ
मुझे डराती है
मेरे मन की खिड़कियों पर
अनिश्चितता की थाप दे
बंद कर जाती है
जो उपजे थे
थोड़े सुमन उपवन में
सब पर अपनी
नाकामी का ग्रहण
लगा जाती है
जाने कैसे
मुझमे उपजी कुंठाओं का
पता लगा जाती है
और फिर दिन ढलने से पहले
अपना अक्स दिखा जाती है
हताशा के जंगलों को फैला
खुद का रौद्र रूप दिखा जाती है
मेरी सरसता सरलता पर
ग्रहण लगा
सूर्यकिरण सा नृत्य दिखाती है
मुझे मुझमे झुलसा
अपने होने का जश्न मनाती है
एक फंतासी सा जब
जीवन बन जाता है
तब अपने स्वरुप पर
गर्वोन्मत्त हो इठलाती है
मेरे गौरव को नष्ट भ्रष्ट कर
मुझसे मुझे चुराती है
यूँ हताशा नर्तन कर
रक्कासा सी
मेरा मखौल उड़ाती है
हताशा के वीभत्स रूप का दिग्दर्शन
जब हो जाता है
मैं
हताशा को ही अपना सखा बना
खुद से विमुख हो जाता हूँ
और फिर
मैं हताशा के भंवर में फँसा खुद का सीना चीरा करता हूँ
हर मोड़ , हर गली
हर चौराहे पर
खुद ही खुद का क़त्ल किया करता हूँ
मगर भंवर से निकलने का
कोई उपाय न सोचा करता हूँ
ओ धैर्य की सौतेली बहन
आखिर कब तक मुझे
यूं ही छलती रहोगी
मेरे मन मस्तिष्क को जड़ कर
मेरी चाहतों का बलात्कार करती रहोगी
आखिर कब तक मेरा दोहन कर
मुझे मुर्दा करती रहेगी
क्योंकि
मैं वो हूँ जो
तेरे गर्भगृह में जब सिमट जाता हूँ
उम्र भर न बाहर आ पाता हूँ
और तू
गर्भवती बन अट्टहास कर
जब समय को ठेंगा दिखाती है
तेरी क्षमताओं पर न शक रहता है
बस मेरा ही स्वरूप विनष्ट होता है
और मैं
तेरे अट्टहासों तले प्रसव की पीड़ा झेलते
मृत भ्रूण बन जब जन्मता हूँ
वास्तव में वो
तेरी जीत और मेरी हार का संध्याकाल होता है
जहाँ तेरे पंख विस्तार पाते हैं
और मेरी कुंठाएं , मेरी चाहतें
छिन्न भिन्न हो
प्रेत बन मुझसे लिपट जाती हैं
और मैं
फिर कभी प्रेतयोनि से न मुक्त हो पाता हूँ
ओ हताशा !
तेरा भयानक विस्तार जब
सृष्टि के कण कण में
आकार पाता है
सृजनकर्ता भी विस्मृत हो जाता है
क्योंकि
विनाश के चिन्हों का प्रकट होना
सूचित कर जाता है
प्रलय निकट है
तेरे साम्राज्य का विस्तार
मानो विराट रूप धारी
कोई कृष्ण खड़ा हो
कौरवों की सभा में
और नष्ट होने को हो सारा ब्रह्माण्ड
जाने क्यों तेरे चेहरे पर
फनधारी सर्प ही रेंगते दिखा करते हैं
जिनका विषाक्त विष
मेरी रग़ों में जब दौड़ा करता है
मैं नीला पड़ जाता हूँ
तेरे चरणों में नतमस्तक हो जाता हूँ
जहाँ कोई सीढ़ी नहीं होती
सिर्फ और सिर्फ
तेरे सर्प ही डंसा करते हैं
मेरी आकुलता को
मेरी व्याकुलता को
मेरी आकांक्षाओं को
मेरी इच्छाओं को
मेरी चाहतों को
और मैं
निसहाय निराश्रित बेबस शिशु सा हो जाता हूँ तुझे तकने को मजबूर !!!
12 टिप्पणियां:
Koi sand hi nahi hi kafi der take to kuch samjne KE salt Kati rahi main aapki rachnao ka main srota hu mohan tum kewel.......air aaj ye o hats a jewen KE Katy satu. Bhut khubsirut man koi choose gyi
आपकी लिखी रचना बुधवार 30 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (29-04-2014) को "संघर्ष अब भी जारी" (चर्चा मंच-1597) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर सारगर्भित रचना.....
Adbhud chintan
हताशा कितनी बी ताकतवर हो जीता इसे आशा से ही जाता है।
वहुत ही गम्भीर विचारमंन्थन व निहितार्थयुत गद्यगीत साधुवाद वंदना गुप्ता
AAPKEE LEKHNI KAA MAIN MUREED HUN . SAAF - SUTHRE SHABDON MEIN
SEEDHEE - SAADEE ABHIVYAKTI KARNAA
AAP KHOOB JAANTEE HAIN .
☆★☆★☆
हताशा के वीभत्स रूप का दिग्दर्शन जब हो जाता है
मैं हताशा को ही अपना सखा बना
खुद से विमुख हो जाता हूँ
... ! …!
आदरणीया वंदना जी
हम सबके जीवन में विषम और विपरीत स्थितियां अवश्य आती हैं,
उनसे उबरना ही श्रेयस्कर होता है...
आपने भी अवश्य ही परिस्थितियों पर विजय पा'कर ही इस रचना का सृजन किया ह...
आपकी लेखनी से सदैव सुंदर श्रेष्ठ सार्थक सकारात्मक सृजन होता रहे...
साधुवाद
मंगलकामनाओं सहित...
-राजेन्द्र स्वर्णकार
वाह !
शब्द जहाँ भी जाते हैं अपना काम करते हैं। फिर शेयर करने का निषेध क्योँ ?हाँ व्यावसायिक उपयोग या आपका नाम उजागर ना करना अनुचित है।
हताशा का सामना करना कठिन है, पर सामना करके ही आदमी उससे उबर पाता है। जैसे उबर आईं हैं आप।
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