हम सब एक काल्पनिक दुनिया में विचरण करते हैं अक्सर ...शायद वही जीने का एक बहाना बन जाती है, एक आस का पंछी ही जीवन को दिशा दे जाता है लेकिन क्या हो यदि हम उस काल्पनिक दुनिया में वीभत्सता को जीने लगें? हमें पता है ये गलत है लेकिन फिर भी एक सोच अपनी जकड़न में ऐसे जकड़े कि चाहकर भी निकल न पायें? मानव का दिमाग आज भी साइंस के लिए कौतुहल का विषय है और उसी दिमाग में उठाते फितूर के साथ यही किसी को जीना पड़े तो वो कैसे जी सकेगा जिसमें हर पल दिन हो या रात एक दूसरा ही संसार साथ साथ चलता रहे? अवास्तविक रूप , वास्तविकता का आभास कराएं, आपसे बतियाएं, आपको अपने कण्ट्रोल में कर लें, आपकी सोचने समझने की क्षमता को ऐसे जकड लें कि आप उनके नियंत्रण में हो जाएँ और कुछ भी करने को तत्पर फिर वो दूसरे को नुक्सान पहुँचाना हो या खुद को.....एक स्किज़ोफ्रेनिक की ज़िन्दगी की ये कडवी हकीकत होती है....वो चाहकर भी नार्मल ज़िन्दगी नहीं जी पाता.....उसे अपने आस पास एक दूसरी दुनिया ही हर पल दिखाई देती है....वो संवाद आपसे कर रहा होता है लेकिन अन्दर भी एक संवाद अदृश्य रूप में चल रहा होता है जो दृश्य उसे दिखाई दे रहे होते हैं उनसे....एक ही पल में दो दो ज़िन्दगी जीना कहाँ आसान होता है? ऐसी ही ज़िन्दगी जी रही है उपन्यास 'स्वप्नपाश' की नायिका गुलनाज फरीबा.
मनीषा कुलश्रेष्ठ द्वारा लिखित किताबघर से प्रकाशित उपन्यास 'स्वप्नपाश' पाठक को एक ऐसी दुनिया में ले जाता है जिससे उसका परिचय नहीं होता. हकीकत से बेहतर उसे उसके सपनो की दुनिया लगती है. कभी हकीकत डराती है कभी स्वप्न. दोनों जिंदगियों में सामंजस्य बिठाना आसान नहीं होता होगा...इसी को दर्शाया है लेखिका ने. उपन्यास में एक ही पहलू नहीं बल्कि कई पहलुओं पर प्रकाश डाला है लेखिका ने जैसे आखिर गुल ऐसी क्यों हुई? क्या वजह रही उसके स्किज़ोफ्रेनिक होने की तो एक वजह तो यही निकलकर आती है कि उसकी माँ ने गर्भावस्था के अंतिम महीनो तक डांस किया जिसका असर उस पर पड़ा. वहीँ स्मोक करना भी एक कारण होता है ऐसा होने का उसे भी लेखिका ने बताया है. साथ ही लेखिका ने एक और पहलू पर ध्यान दिलाया कि ऐसे बच्चों को अपनों के साथ की बहुत जरूरत होती है. उनकी स्पेशल केयर की जाए तो संभव है वो नार्मल ज़िन्दगी जी सकें लेकिन जिसके माता पिता दोनों ही अपनी महत्त्वाकांक्षाओं से घिरे हों, बच्ची आया के सुपुर्द हो वहां तो ये समस्या हमेशा समस्या ही रहेगी क्योंकि जो प्यार और देखभाल माता पिता दे सकते हैं आया नहीं, मानो यही कहना चाहा है लेखिका ने. क्योंकि गुलनाज़ ऐसे ही ट्रामा से लगातार गुजरती रही, वो चाहती थी अपनी माँ का साथ, उससे सब शेयर करना लेकिन माँ का व्यक्तित्व ही हावी रहा उस पर, कभी वो सुरक्षा महसूस ही नहीं हुई जिनसे सब शेयर किया जा सके यहाँ तक कि जिस उम्र में एक माँ की सबसे ज्यादा एक जवान होती लड़की को जरूरत होती है उस उम्र में भी वो आया पर ही निर्भर रही और अपने शरीर में होते बदलाव को लेकर वो बच्ची आशंकित ही रही, यहाँ तक कि सेक्स भी उसके लिए कभी रुचिकर विषय नहीं रहा. फिर भी प्यार की प्यास थी उसके अन्दर जो चाहती थी कोई उसे चाहे उसके शरीर को नहीं लेकिन वो हमेशा प्यासी ही रही. यहाँ तक कि एक चित्रकार होने के नाते वो अपने चित्रों में शायद अपने मन की उन्ही ग्रंथियों को उकेरती रही जो उसने कच्ची उम्र से भोगा फिर वो सेक्स हो, घृणा या जीवन या फिर न्युड़ीटी ... क्योंकि अभिव्यक्ति को माध्यम की जरूरत थी और वो शायद इसी रूप में बाहर आ रही थी. बहुत आसान होता है कला और साहित्य में न्युड़ीटी के माध्यम से ऊपर चढ़ना लेकिन वो तो ऐसा चाहती भी नहीं थी लेकिन तब भी उसकी चेतना उससे ऐसे ही स्केच बनवाती थी जो शायद यही बताते थे कि कहीं न कहीं सेक्स का विषय उनके लिए एक दुखद या सुखद अनुभूति की तरह होता है क्योंकि बचपन से ही अवांछित शोषण की शिकार हो जाती है लेकिन उस घुटन को किसी से न कह पाना कितना मुश्किल होता है ऐसे में जीना और खुद को एक अपने सोच के दायरे में कैद कर लेना क्योंकि कोई उन पर न विश्वास करने वाला था और न ही सुनने वाला फिर बड़े होने पर फिर सेक्स के वक्त मतिभ्रम का शिकार हो जाना तो कैसे नहीं ऐसे लोग वो ही बनायेंगे या लिखेंगे जो ऐसे दुखद दौर से गुजरे हों. मानसिक उद्वेलन क्यों नही उभरेगा उनकी कृतियों में ? खुद को बाहर निकालने का एक सशक्त माध्यम था चित्रकारी लेकिन उसी माध्यम ने उससे उसका सब कुछ छीन भी लिया जब वो एक कला समीक्षक के द्वारा बलात्कार की शिकार हो जाती है और खुद पर नियंत्रण खो देती है. कितना अकेलापन महसूस किया उसने उस वक्त कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद माँ लन्दन में रहने लगी और वो यहाँ अकेली नाना के घर में, जहाँ अनेक स्मृतियाँ थीं और फिर एक दिन वो भी बेच दिया हो .......पूरे संसार में जैसे कोई नहीं उसका और यदि कोई है उसका तो उसके आभासी किरदार, जिसे डॉक्टर मतिभ्रम कहते हैं. यूँ तो हर इंसान साथ होते भी अकेला होता है और यदि कोई उसके साथ होता है तो उसके विचार , उसकी सोच और उसकी कल्पना ही होती है फिर वो कल्पना ईश्वर ही क्यों न हो तो लगता है जैसे हर व्यक्ति स्किज़ोफ्रेनिक ही तो है मगर यहाँ सोचिये जो व्यक्ति मतिभ्रम की उच्चतम अवस्था में पहुँच जाए , जिसका खुद पर से नियंत्रण ही ख़त्म हो जाए...आखिर क्यों? क्योंकि कहीं न कहीं वो बहुत अकेला हो गया, कोई नहीं मिला उसे जिससे अपने मन की कह सके तो उसके पास आखिरी रास्ता आखिर क्या बचेगा? शायद आत्महत्या ही और वो ही गुल्नाज़ करती है ........वहीँ डॉ मृदुल का रोल भी इसमें बहुत मायने रखता था........बेशक जो डॉ होता है उसे मरीज से सिर्फ उतना ही रिश्ता रखना चाहिए जितना मरीज और डॉ में होता है लेकिन ऐसे मरीजों के अन्दर की बात जानने के लिए डॉ को आत्मीयता दिखानी पड़ती है, उनको अहसास कराना होता है वो उनको न केवल सुनेंगे बल्कि समझेंगे भी और ऐसा ही डॉ करता है लेकिन गुलनाज़ की हालत डॉ को उसके बेहद करीब ले आती है तो गुल के लिए एक आकर्षण का कारण बन जाता है जैसा कि ऐसे केसों में हो जाता है और डॉ मृदुल भी उसके लिए हमेशा फिक्रमंद रहता है लेकिन उसका अर्थ ये नहीं कि वो भी नजदीकियां बढाए और जैसे ही समझ आता है वो किनारा कर लेता है शायद ये भी एक वजह बनी उसके इस ट्रामा के बढ़ने की......आशा और निराशा के संसार का चित्रण है स्वप्नपाश, मानसिक उद्वेलना को जैसे किसी ने टंकित कर दिया हो ....लेखिका ने बेहद गहन अध्ययन कर एक ऐसी समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करवाया है जिसमें हम बहुत जल्दी खिताब दे देते हैं सामने वाले को पागल होने का लेकिन जरूरी है सामने वाले की समस्या को समझना और उसे अपनेपन का अहसास करवाना.......मानो इस कहानी के द्वारा यही लेखिका कहना चाहती हैं.
बहुत संवेदनशील होते हैं ऐसे लोग ऐसे में उनकी उपेक्षा ही उनको आक्रामक बनाती है. यदि उन्हें प्यार दुलार और व्यवहार उचित मिले तो संभव है वो एक नार्मल लाइफ जी सकें और अपनी इस परिस्थिति से बाहर आ सकें क्योंकि कहीं न कहीं उपेक्षा तो हर व्यक्ति को व्यथित करती है, आक्रामक करती है. छोटा सा उदाहरण साहित्य में ही देखिये जो भी उपेक्षित होता है वो कैसे आरोप लांछन का खेल खेलकर अपनी आक्रामकता प्रदर्शित करता है बिना बड़े छोटे का लिहाज किये तो जो अपने दिमाग के हाथों की कठपुतली बने हों उनका तो आक्रामक होना लाजिमी है.
हैलूसिनेशन कहना आसान है लेकिन जो झेलता है उसको समझना बहुत मुश्किल. वहम किसे नहीं होते ? आम इंसान भी वहम में ही जीता है उम्र भर. ऐसे में जो पेशेंट होता है वो कुछ ज्यादा ही उनमें जीता है. एक डॉ का क्या रोल हो, घरवालों का क्या रोल हो और पेशेंट को कैसे हैंडल किया जाना चाहिए मानो इसी को रेखांकित करना चाहती है लेखिका. खुद नृत्य में पारंगत होने के कारण उसके पहलुओं को भी बेहद सघनता से उकेरा है तो कला दीर्घा के प्रति उनकी रूचि परिलक्षित होती है. एक बेहद जटिल विषय पर बहुत ही सहज रेखांकन है स्वप्नपाश. पढ़ते पढ़ते कई बार ऐसा लगा जैसे जॉयश्री रॉय को पढ़ रहे हों. दोनों लेखिकाओं के लेखन में कई जगह समानता दिखाई दी. उसी तरह कई पहलुओं को लेखिका ने उभारा जैसे जॉयश्री रॉय ने दर्द्जा में उभारा तो ध्यान जाना स्वाभाविक है. सबसे बड़ी बात उपन्यास का कवर खुद पूरी कहानी व्यक्त कर जाता है. लेखिका किसी पहचान की मोहताज नहीं, उनका लेखन ही उनकी पहचान है. उम्मीद है आगे भी पाठकों को ऐसे ही नए विषय पढने को मिलते रहेंगे. शुभकामनाओं के साथ ...
विश्व पुस्तक दिवस पर पुस्तक की ही बात क्यों न की जाए और उसे सार्थक किया जाए.
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-04-2018) को ) "चलना सीधी चाल।" (चर्चा अंक-2951) पर होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
विस्तृत समीक्षा उपन्यास की ओर आकर्षित कर रही....
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