एक लम्बे अरसे बाद
जब खोलती है घूँघट
अपने मुख से कविता
चकित रह जाता है कवि
देख उसका अनुपम सौन्दर्य
उसकी काम कमान भवें
नेत्रों की चपलता
धीर गंभीर मुखाकृति पर
छोड़ जाती हैं एक विरोधाभास
वो कोई और थी
या तुम कोई और हो
पहचान के सभी चिन्ह मिलते हैं जब नदारद
हो जाता है कवि
चारों खाने चित्त
अब किसे सहेजे
उठ खड़ा होता है प्रश्न
और समय के गर्भ से मिलता है उत्तर
बचपन हो या यौवन
अवसान तो होता है
और जो परिपक्वता प्रौढ़ावस्था को प्राप्त होती है
वहीँ अनुभव की पोटली से सजी श्वेत केशराशी
कर देती है द्विगुणित सौन्दर्य कविता का
जिसका कभी अवसान नहीं हुआ करता
आओ करो उद्घोष कवि
वक्त जो बीता
उदासीन निरुद्देश्य
किसी निरर्थक समाधि सा
उसी के गर्भ में छुपे होते हैं बीज कविता के
वही रचता है कालजयी कविता
और तुम बन जाते हो कालजयी कवि
मान लेना
वो खाली दीवारों को तकना
छत पर मकड़ी के जालों को देखते रहना
खुद से भी बेजार हो उठना
नहीं था निरर्थक , निरुद्देश्य
बेचैनी बेसब नहीं हुआ करती ... जानते हो न
खालीपन वास्तव में खालीपन नहीं होता
भर रहे होते हो तुम उस वक्त
जरूरी हवा, पानी और धूप
यही है खाद
तुम्हारी तरलता की
क्योंकि
संवेदनाओं के बीज
मौसम के अनुकूल होने पर ही प्रस्फुटित हुआ करते हैं
समय के सीने पर छोड़ने को पदचाप
जरूरी है तुम्हारा गूंगे वक्त से मौन संवाद
#विश्वकवितादिवस
1 टिप्पणी:
बेहतरीन रचना......
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