लाठी पकड़ चलते पिता
कितने अशक्त
एक एक कदम
मानो मनो शिलाओं का बोझ उठाये
कोई ढो रहा हो जीवन/सपने/उमीदें
फिर भी सिर्फ अपनी ममता से हार जाते
खुद को ढ़ोकर
टुक-टुक करते लाठी पकड़
पहुँच ही जाते दूसरे कमरे में टेलीफोन के पास
मोबाइल का ज़माना नहीं था वो
यदि था भी
तो इनकमिंग ही इतनी महँगी थी
कि चाहकर भी
खुद को नहीं दे सकते थे ये उपहार
आखिर पेंशनर जो ठहरे
पिता की ममता
उनका स्नेह
सिमट आता था चंद पंक्तियों में
और हो जाते थे वो संतुष्ट
सुन बेटी की आवाज़
मानो मिली हो उन्हें
सारे जहान की सौगात
कैसी है ?
अच्छी हूँ
आप कैसे हैं ?
मैं भी ठीक हूँ
बच्चे कैसे हैं ?
वो भी ठीक हैं
बस हो गया संवाद सम्पूर्ण
बस मिला गया उन्हें अनिर्वचनीय सुख
बस हो गयी तसल्ली
बेटी सुखी है
सुन ली उसकी आवाज़
तो क्या हुआ
जो कुछ कदम चल
खुद को तकलीफ दे दे
आवाज की आवाज़ से मुलाक़ात तो हो गयी
ब्याह दी जाती हैं जिन घरों से बेटियां
अकेलेपन की लाठी बहुत भारी होती है
तोड़ने को उस लाठी की चुप्पी
पिता, टुक-टुक कर पहुँच सकते थे कहीं भी
बेटियां, पिता की दुलारी बेटियां
पिता को खोने के बाद याद करती हैं
देती हैं आवाज़
एक बार आओ
करो फिर से संवाद
उसी तरह ... बाउजी
कि आवाज़ ही माध्यम है तसल्ली की
कुशलता की
की हो वहाँ सकुशल आप
इस बार फर्क सिर्फ इतना है
पिता की जगह बेटी ने ले ली है...
3 टिप्पणियां:
पिता को समर्पित मन को छूती सच्ची कविता
बधाई
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-06-2017) को
"पिता जैसा कोई नहीं" (चर्चा अंक-2647)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
पिता और बेटी का रिश्ता मन ही अनुभव कर सकता है .
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