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सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

इश्क के छर्रे

दिन जाने किस घोड़े पर सवार हैं
निकलते ही छुपने लगता है
समय का रथ
समय की लगाम कसता ही नहीं
और मैं
सुबह शाम की जद्दोजहद में
पंजीरी बनी ठिठकी हूँ आज भी ......तेरी मोहब्बत के कॉलम में

और तुम
फाँस से गड़े हो अब भी मेरे दिल के समतल में

मोहब्बत के नर्म नाज़ुक अहसास कब ताजपोशी के मोहताज रहे ...

बाहों में कसना नहीं
निगाहों में
दिल में
रूह में कस ले जो .............बस यही है मोहब्बत का आशियाना

अब निकल सको तो जानूँ तुम्हें .............

ये इश्क के छर्रे हैं
जिसमे दम निकलता भी नहीं और संभलता भी नहीं .........
 
ज़िन्दगी के पहले और आखिरी गुनाह का नाम है ..........मोहब्बत

3 टिप्‍पणियां:

कौशल लाल ने कहा…

गुनाहों से भरी दुनिया में
इस गुनाह की जो नेमत मिले
हर रोज कई लोग
मर-मर कर जी उठते है.......।

Parul kanani ने कहा…


lekin bahut khoobsurat gunah hai ye :)

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर