दिन जाने किस घोड़े पर सवार हैं
निकलते ही छुपने लगता है
समय का रथ
समय की लगाम कसता ही नहीं
और मैं
सुबह शाम की जद्दोजहद में
पंजीरी बनी ठिठकी हूँ आज भी ......तेरी मोहब्बत के कॉलम में
और तुम
फाँस से गड़े हो अब भी मेरे दिल के समतल में
मोहब्बत के नर्म नाज़ुक अहसास कब ताजपोशी के मोहताज रहे ...
बाहों में कसना नहीं
निगाहों में
दिल में
रूह में कस ले जो .............बस यही है मोहब्बत का आशियाना
अब निकल सको तो जानूँ तुम्हें .............
ये इश्क के छर्रे हैं
जिसमे दम निकलता भी नहीं और संभलता भी नहीं .........
ज़िन्दगी के पहले और आखिरी गुनाह का नाम है ..........मोहब्बत
4 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 25 अक्टूबर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
गुनाहों से भरी दुनिया में
इस गुनाह की जो नेमत मिले
हर रोज कई लोग
मर-मर कर जी उठते है.......।
lekin bahut khoobsurat gunah hai ye :)
बहुत सुन्दर
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