क्या फर्क पड़ता है
मैं स्त्री हूँ या पुरुष
मानव सुलभ इर्ष्याओं से तो ग्रस्त रहता ही हूँ
पड़ जाता हूँ हैरत में
अपने समकालीनों को देख
नहीं स्वीकार पाता उनका बढ़ता वैभव
आखिर कैसे संभव है
कम समय में बुलंदियों को छूना
हमने क्या महज घास की खोदी है एक अरसे से
जो कल के आये
तरेरते हैं आँखें
करते हैं जुबाँ बंद अच्छे अच्छे लिक्खाडों की
न न यूं तो अपने वर्चस्व पर
लग जाएगा ग्रहण
ज्यों हम यूं तरजीह देते रहे
और वाह वाह का छौंक
उनके लेखन में देते रहे
बदलनी होगी तस्वीर
खुद को बचाने की जद्दोजहद में
खींचनी ही होगी एक लकीर
उनके और अपने बीच
ताकि तहजीब के फासलों पर
बची रहे कुछ इज्जत
यूं भी
फिर क्या बचेगा हमारे पास
कर दिए जायेंगे दरकिनार जब
इसलिए सोचा है
अपनी इर्ष्या को स्नेहमिश्रित चाशनी में डुबाकर
भले ही ऊपर से ही सही
करने ही होंगे थोड़े बहुत गुणगान
मगर
आलोचना के सम्पुट लगाकर
ताकि
बचा रहे लोकतंत्र लेखन में हमारा भी
ये आज के वक्त की
आज के लेखन की राजनीति है
फिर भला कैसे अछूते रह सकते हैं हम
जानते हो
मुख पर मुस्कान का खोल ओढना
वाहवाही की झांझर झंकाना
सच पर हैरिसन ताले लगाकर रखना
और अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या को सहेजना भी एक कला है
क्या आती है तुम्हें ?
मैं स्त्री हूँ या पुरुष
मानव सुलभ इर्ष्याओं से तो ग्रस्त रहता ही हूँ
पड़ जाता हूँ हैरत में
अपने समकालीनों को देख
नहीं स्वीकार पाता उनका बढ़ता वैभव
आखिर कैसे संभव है
कम समय में बुलंदियों को छूना
हमने क्या महज घास की खोदी है एक अरसे से
जो कल के आये
तरेरते हैं आँखें
करते हैं जुबाँ बंद अच्छे अच्छे लिक्खाडों की
न न यूं तो अपने वर्चस्व पर
लग जाएगा ग्रहण
ज्यों हम यूं तरजीह देते रहे
और वाह वाह का छौंक
उनके लेखन में देते रहे
बदलनी होगी तस्वीर
खुद को बचाने की जद्दोजहद में
खींचनी ही होगी एक लकीर
उनके और अपने बीच
ताकि तहजीब के फासलों पर
बची रहे कुछ इज्जत
यूं भी
फिर क्या बचेगा हमारे पास
कर दिए जायेंगे दरकिनार जब
इसलिए सोचा है
अपनी इर्ष्या को स्नेहमिश्रित चाशनी में डुबाकर
भले ही ऊपर से ही सही
करने ही होंगे थोड़े बहुत गुणगान
मगर
आलोचना के सम्पुट लगाकर
ताकि
बचा रहे लोकतंत्र लेखन में हमारा भी
ये आज के वक्त की
आज के लेखन की राजनीति है
फिर भला कैसे अछूते रह सकते हैं हम
जानते हो
मुख पर मुस्कान का खोल ओढना
वाहवाही की झांझर झंकाना
सच पर हैरिसन ताले लगाकर रखना
और अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या को सहेजना भी एक कला है
क्या आती है तुम्हें ?
4 टिप्पणियां:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (18.09.2015) को "सत्य वचन के प्रभाव "(चर्चा अंक-2102) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 18 सितम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
हाँ सचमुच,ये भी एक कला ही है !
कोई विरला ही माहिर होता है इस कला में।
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