ऊँहूँ ......नहीं कह सकती
(तेरा नाम गुनगुना रही हूँ मैं .........यादों की छुअन से गुजरे जा रही हूँ मैं )
ए
पहली बरसात से कहो न
यूँ जेहन की कुण्डियाँ न खडकाया करे
अब यहाँ थाप पर प्रतिध्वनियाँ नहीं हुआ करतीं
क्यूंकि
पहली बरसात हो और कोई इश्क में भीगा न हो
तो
रूह के छालों पर सारे ज़माने का चंदन लगा लेना
फफोले तो पड़ कर ही रहेंगे
ज़ख्म तो रिस कर ही रहेंगे
क्योंकि यहाँ तो
पहली बरसात में भीगने का शगल
जाने कब चौखट लाँघ गया
सुना है
तन से ज्यादा तो
मन भीगा करता है
जब उमंगों का सावन बरसता है
मगर जरूरी तो नहीं न
उमंगों की मछलियों का सुनहरी होना
हर बरसात में ........
एक अरसा बीता
तो कभी कभी लगता है
एक युग ही बदल चुका
मगर मन का कोहबर है कि खुलता ही नहीं ..........
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर शब्द
सुना है
तन से ज्यादा तो
मन भीगा करता है
जब उमंगों का सावन बरसता है
मगर जरूरी तो नहीं न
उमंगों की मछलियों का सुनहरी होना
हर बरसात में ........
बहुत सुन्दर ..
सुना है
तन से ज्यादा तो
मन भीगा करता है
जब उमंगों का सावन बरसता है
मगर जरूरी तो नहीं न
उमंगों की मछलियों का सुनहरी होना
हर बरसात में ........
बहुत सुन्दर ..
सुन्दर रचना !
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
www.manojbijnori12.blogspot.com
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