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बुधवार, 13 मई 2015

खोल सकते हो तो खोल देना



मेरी मुखरता के सर्पदंश से जब जब आहत हुए
दोषारोपण की आदत से न मुक्त हुए
इस बार बदलने को तस्वीर
करनी होगी तुम्हें ही पहल

क्योंकि
इस ताले की चाबी सिर्फ तुम्हारे पास है

सुनो
खोल सकते हो तो खोल देना
मेरी चुप को इस बार
क्योंकि
मुखर किंवदंतियों का ग्रास बनने के लिए जरूरी है तुम्हारा समर्पण

11 टिप्‍पणियां:

Mohinder56 ने कहा…

वन्दना जी,

जाने क्योँ मुझे रचना के कथन मेँ विरोधाभास प्रतीत हो रहा है... मुखरता और चुप, दोषारोपण और समर्पण....

या फिर मेरी मँद बुद्धि आपकी गूढ कविता की तह तक जाने मेँ असमर्थ रही है... आप ही प्रकाश डाल सकती हैँ

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत सुन्दर..

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14 - 05 - 2015 को चर्चा मंच की चर्चा - 1975 में दिया जाएगा
धन्यवाद

Kailash Sharma ने कहा…

मुखर किंवदंतियों का ग्रास बनने के लिए जरूरी है तुम्हारा समर्पण
...वाह..शायद यह समर्पण अब ज़रूरी भी है...बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति..

palash ने कहा…

sateek and man ki baat chup ho kar bhi kahti rachna.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

समर्पण से चुप खुल सके तो प्रेम की जीत ही है ...

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत शानदार ,आपको बहुत बधाई

dj ने कहा…

बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति आदरणीया

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

सुन्दर..

रचना दीक्षित ने कहा…

चुपचाप बोलती प्रस्तुति

Onkar ने कहा…

सुन्दर रचना