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शनिवार, 27 सितंबर 2014

कुछ तो भरम रहेगा

जिस्म के टाँके उधडने से पहले 
आओ उँडेल दूँ थोडा सा मोम 
कुछ तो भरम रहेगा 
जुडे हैं कहीं न कहीं 
जुडे रहने का भरम 
शायद जिला दे रातों की स्याही को 
और सुबह की साँस पर 
ज़िन्दा हो जाए एक दिन 
दिन और रात के चरखे पर 
कात रही हूँ खुद को 
कायनात के एक छोर से दूसरे छोर तक 
जानते हुए ये सत्य 
भरम है तो टूटेगा भी जरूर…



8 टिप्‍पणियां:

गजेन्द्र कुमार पाटीदार ने कहा…

भरम पर आस्था और अनास्था का समुचित समन्वय...।
कविता अच्छी लगी।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-09-2014) को "कुछ बोलती तस्वीरें" (चर्चा मंच 1750) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
शारदेय नवरात्रों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Unknown ने कहा…

Bahut sunder bhaawpurn prastuti !!

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

शायद यह भरम सबको है और टूटता है एक दिन ...बहुत सुन्दर !
नवरात्रों की हार्दीक शुभकामनाएं !
शुम्भ निशुम्भ बध - भाग ५
शुम्भ निशुम्भ बध -भाग ४

Kailash Sharma ने कहा…

दिन और रात के चरखे पर
कात रही हूँ खुद को
कायनात के एक छोर से दूसरे छोर तक
जानते हुए ये सत्य
भरम है तो टूटेगा भी जरूर…

...वाह...लाज़वाब अहसास..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

Dr. Rajeev K. Upadhyay ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण कविता तो जो दिल को छुकर निकलती है। एक राय है मेरी। कृपया विरामों का प्रयोग करें ताकि आप जो कहना चाहती हैं वो स्पष्ट रहे। स्वयं शून्य

Preeti 'Agyaat' ने कहा…

बहुत खूब

जयंत - समर शेष ने कहा…

बहुत सुंदर कविता