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बुधवार, 10 सितंबर 2014

वक्त के हाशिये पर


वक्त के हाशिये पर
खडे दो आदमकद  कंकाल
अपने अपने वजूद की
परछाइयाँ ढूँढते मिट गये
मगर एक टुकडा भी
हाथ ना आया
जाने वक्त निगल गया
या
मोहब्बत रुसवा हुई
मगर फिर भी
ना दीदार की
हसरत हुई
अब तू ही कर
ए ज़माने ये फ़ैसला
 ये वक्त की जीत हुई
या मोहब्बत की हार हुई

9 टिप्‍पणियां:

Manoj Kumar ने कहा…

अच्छी रचना .!
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा , मेरे ब्लॉग पर आकर अपने सुझाव दे और ब्लॉग से जुड़कर मार्गदर्शन करें

Manoj Kumar ने कहा…

अच्छी रचना .!
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा , मेरे ब्लॉग पर आकर अपने सुझाव दे और ब्लॉग से जुड़कर मार्गदर्शन करें

Manoj Kumar ने कहा…

अच्छी रचना .!
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा , मेरे ब्लॉग पर आकर अपने सुझाव दे और ब्लॉग से जुड़कर मार्गदर्शन करें

Unknown ने कहा…

अति सुन्दर

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर पोस्ट।

Unknown ने कहा…

बिलकुल सही बात है

विभूति" ने कहा…

खुबसूरत अभिवयक्ति..

Onkar ने कहा…

सुंदर

pran sharma ने कहा…

BEHTREEN !