जिस्म के टाँके उधडने से पहले
आओ उँडेल दूँ थोडा सा मोम
कुछ तो भरम रहेगा
जुडे हैं कहीं न कहीं
जुडे रहने का भरम
शायद जिला दे रातों की स्याही को
और सुबह की साँस पर
ज़िन्दा हो जाए एक दिन
दिन और रात के चरखे पर
कात रही हूँ खुद को
कायनात के एक छोर से दूसरे छोर तक
जानते हुए ये सत्य
भरम है तो टूटेगा भी जरूर…
आओ उँडेल दूँ थोडा सा मोम
कुछ तो भरम रहेगा
जुडे हैं कहीं न कहीं
जुडे रहने का भरम
शायद जिला दे रातों की स्याही को
और सुबह की साँस पर
ज़िन्दा हो जाए एक दिन
दिन और रात के चरखे पर
कात रही हूँ खुद को
कायनात के एक छोर से दूसरे छोर तक
जानते हुए ये सत्य
भरम है तो टूटेगा भी जरूर…
8 टिप्पणियां:
भरम पर आस्था और अनास्था का समुचित समन्वय...।
कविता अच्छी लगी।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-09-2014) को "कुछ बोलती तस्वीरें" (चर्चा मंच 1750) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
शारदेय नवरात्रों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Bahut sunder bhaawpurn prastuti !!
शायद यह भरम सबको है और टूटता है एक दिन ...बहुत सुन्दर !
नवरात्रों की हार्दीक शुभकामनाएं !
शुम्भ निशुम्भ बध - भाग ५
शुम्भ निशुम्भ बध -भाग ४
दिन और रात के चरखे पर
कात रही हूँ खुद को
कायनात के एक छोर से दूसरे छोर तक
जानते हुए ये सत्य
भरम है तो टूटेगा भी जरूर…
...वाह...लाज़वाब अहसास..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
बहुत ही भावपूर्ण कविता तो जो दिल को छुकर निकलती है। एक राय है मेरी। कृपया विरामों का प्रयोग करें ताकि आप जो कहना चाहती हैं वो स्पष्ट रहे। स्वयं शून्य
बहुत खूब
बहुत सुंदर कविता
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