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बुधवार, 13 अगस्त 2014

आदिम पंक्ति की एक क्रांतिकारी रुकी हुयी बहस हूँ मैं



आदिम पंक्ति की एक क्रांतिकारी रुकी हुयी बहस हूँ मैं
किसी देवनागरी या रूसी या अरबी लिपि में
लिपिबद्ध नहीं हो पाती
शायद कोई लिपि बनी ही नहीं मेरे लिये
अबूझे शब्द अबूझी भाषा का अबूझा किरदार हूँ मैं
जिसके चारों ओर बने वृत को तोडने में
सक्षम नहीं कोई बहस
फिर भी मुगालता पाल रखा है
कर सकते हैं हम लिपिबद्ध
दे सकते हैं मौन को भी स्वर
बना सकते हैं एक नया व्याकरण
मगर क्या सोचा कभी
कुछ व्याकरण वक्त की शिला पर
कितना भी अंकित करो
अबूझे रहने को प्रतिबद्ध होते हैं
क्योंकि
होती ही नहीं संभावना
किसी भी भावना को लिपिबद्ध करने की
फिर भी बहस का विषय केन्द्र बिंदु हूँ मैं
भूत , वर्तमान और भविष्य को
कितना छानो छलनी में
बहस का ना ओर है ना छोर
और बिना सिरों वाली बहसें
कब मुकाम हासिल  कर पाती हैं ……सभी जानते हैं
क्योंकि
एक रुके हुये फ़ैसले सी
आदिम पंक्ति की एक रुकी हुयी बहस हूँ मैं
जिसकी पूर्णता , सम्पूर्णता रुके रहने में ही है ……


( मेरे संग्रह " बदलती सोच के नए अर्थ " से )


6 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

अद्भुत पंक्तियाँ
एक बेजोड़ रचना

रविकर ने कहा…

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज गुरुवारीय चर्चा मंच पर ।। आइये जरूर-

Harihar (विकेश कुमार बडोला) ने कहा…

सबकी नजर में तो यह बहस रुकी हुई नहीं है।

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

आदिम पंक्ति की यह बहस जारी रखने में सारे तर्क लँगड़ा गए हैं और संवेदनाएँ सो गई है - समय चुप देख रहा है!

मन के - मनके ने कहा…

एक रुके हुए फैसले सी---जिसकी की पूर्णता---रुके रहने में ही है
भाव-पूर्ण व अर्थ-पूर्ण पंक्तियां.

Onkar ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति