कुछ चली ऐसी बयार चिंगारियों की
जिस्म की परछाईं भी लुप्त हो गयी
अब परछाइयों की परछाइयाँ ढूँढती हूँ
पुराने मकाँ में इक आशियाना ढूँढती हूँ
देवदार शीशम चैल की लकडियों में गुम
वजूद के टूटे - बिखरे निशाँ ढूँढती हूँ
वो जो तल्खी से बंद किये थे किवाड
उन किवाडों के बीच इक दरार ढूँढती हूँ
झिर्रियों के पार रौशनी के दरीचों में
मैं उम्र की सफ़ेदी के चराग ढूँढती हूँ
इस अंधेरी शाम की सुर्खियों के बीच
होम हुये ख्वाबों के कलाम ढूँढती हूँ
जाने क्यूँ सुलगती नहीं सूखी हुई लकडी
जबकि रोज उसमें घी की आहूति बीजती हूँ
जिस्म की परछाईं भी लुप्त हो गयी
अब परछाइयों की परछाइयाँ ढूँढती हूँ
पुराने मकाँ में इक आशियाना ढूँढती हूँ
देवदार शीशम चैल की लकडियों में गुम
वजूद के टूटे - बिखरे निशाँ ढूँढती हूँ
वो जो तल्खी से बंद किये थे किवाड
उन किवाडों के बीच इक दरार ढूँढती हूँ
झिर्रियों के पार रौशनी के दरीचों में
मैं उम्र की सफ़ेदी के चराग ढूँढती हूँ
इस अंधेरी शाम की सुर्खियों के बीच
होम हुये ख्वाबों के कलाम ढूँढती हूँ
जाने क्यूँ सुलगती नहीं सूखी हुई लकडी
जबकि रोज उसमें घी की आहूति बीजती हूँ
10 टिप्पणियां:
इन चिंगारियों से क्या घबराना ...
सुंदर शब्द !! बेहतरीन !!
बहुत खूब ... जीवन के सफर में कुछ उलझे हुए धागों से रूबरू होती नज़्म ...
very romantic post
बहुत ही बेहतरीन और प्रभावी , शब्द शिल्प खूबसूरत बन पडा है और भाव एकदम कमाल के निकले हैं । बहुत ही बढिया .....जारी रहिए , हम आते रहेंगे और पढते रहेंगे .....
बहुत ही खूबसूरत रचना.
रामराम.
बहुत सुन्दर !
सियासत “आप” की !
नई पोस्ट मौसम (शीत काल )
बहुत ही सुंदर रचना गहरे भाव
बार-बार पढ़ने का जी करता है
उम्र की सफेदी के चराग !
बहुत सुन्दर है ये शब्दों की आहुति !
बहुत सुन्दर ग़ज़ल
बहुत खूब .
एक टिप्पणी भेजें