जंगल
जहाँ सब तरह के जानवर
सबका एक स्थान
अपनी एक पहचान
अपना एक मुकाम
सबके अपने अपने चेहरे
अपनी अपनी वर्जनायें
फिर संघर्षबाजी हो या गुटबाजी
चेहरों के समीकरण बदलने लाज़िमी हैं
दोस्त दुश्मन बनने लाज़िमी हैं
अहंकार के बिच्छू जब ज़हर उगलते हैं
दंश तो तड़पायेगा ही
और ऐसे में यदि
कोई चेहरा मोहरा बन जाए
वक्त की मुखर आवाज़ बन जाए
कोई चेहरा समझौता ना कर पाये
दोषी ठहराया जाना लाज़िमी है
सारी अवगुंठाओं की गाज़
उसी पर गिरनी लाज़िमी है
जिसने विद्रोह किया
उसका कुचलना लाज़िमी है
क्योंकि असहयोग आंदोलन का
प्रणेता जो बन जाता है
फिर जंगल को भला
कब दूसरा राजा सुहाता है
इसलिए जरूरी हो जाता है पासे पलटना
अपनी मान्यताओं पर खरा उतरने को
असहयोगी सहयोगी बन
बनाते हैं नव कीर्तिमान
बदलने को हवा का रुख
और साबित करने को
खुद को पाक साफ
मुखौटे लगा सिद्ध कर देते हैं
ये जो उभरा है नया चेहरा
हमारे जंगल का नहीं है
या तो हमारे जैसा बन जा
जो हम कहते हैं वैसा करता जा
नहीं तो आता है हमें सिद्ध करना स्वयं को
निर्दोष और तुम्हें दोषी
और इस फरमान के साथ
जंगल में असहयोग आंदोलन का
प्रणेता हो जाता है धराशायी
जानकार ये सत्य
क्योंकि
जंगलों के क़ानून से अवगत नहीं हूँ
इसलिए
उसूलों आदर्शों पर चलने वाला
असभ्य हूँ मैं !!!
11 टिप्पणियां:
असभ्यता जरूरी है .......... इन दिनों :)
वाह ..... कितना कुछ पंक्तियाँ
उसूलों आदर्शों पर चलने वाला
असभ्य हूँ मैं !!
....गहरी अभिव्यक्ति.....ये प्रश्न ही है !!
Bahoot sunder prastuti
गहन अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर
गहरे भाव .... गहन अभिव्यक्ति ...
बहुत सुंदर....
कभी कभी तथाकथित सभ्यों को सभ्यता सिखाने के लिए असभ्य बनना ज़रूरी हो जाता है...बहुत प्रभावी और सटीक प्रस्तुति...
सही लिखा है
सटीक रचना
सटीक अभिव्यक्ति ...
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