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शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

बालार्क …………मेरी नज़र से

दोस्तों 
बालार्क यानि बाल सूर्य …… लेखन के क्षेत्र में हम सभी बालार्क ही तो हैं और उन सबको एकत्रित करके एक माला में पिरोने का श्रेय रश्मि प्रभा दी और किशोर खोरेन्द्र जी को जाता है और उसमें मुझे इतना सम्मान देना कि मेरे द्वारा लिखी प्रस्तावना को स्थान देना अन्दर तक अभिभूत कर गया साथ में आत्मविश्वास का संचार कर गया । इस संग्रह में मेरी तीन रचनाओं को भी स्थान मिला है जो मेरे लिये गौरव की बात है ।

बालार्क काव्य संग्रह यूँ तो अपने आप में अनूठा और बेजोड़ है जिसमे चुन चुन कर सुमनो को संजोया गया है और एक काव्य का गुलदस्ता बनाया गया है जिसे पढ़ने के बाद  सोच के जंगलों में उगी झाड़ियों को नए आयाम मिलते हैं , एक नयी दिशा मिलती है।कोशिश करती हूँ अपने नज़रिये से कवियों के लेखन को समझने की और आपके समक्ष प्रस्तुत करने की : 

आइये इस संग्रह के पहले कवि " देवेन्द्र कुमार पाण्डेय "  से मिलते हैं जिनकी पहली ही कविता "दंश" मन को झकझोरती है. इंसानी जीवन और पशु के जीवन में ना जहाँ कोई फर्क दिखता  है , एक कांटा सा  दिल में चुभता है और लहू भी नहीं निकलता ये है लेखन का व्यास तो दूसरी कविता "पिता " पिता के होने और ना होने के फर्क को यूं संजोती है जैसे कोई बच्चा अपने सबसे प्रिय खिलौने को सम्भालता है और उसके महत्त्व को जानता है मगर इंसान कहाँ जीते जी सारे सचों को जान पाता  है और जब जानता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. 

" धूप ,हवा और पानी " कविता एक ख़ामोशी की चीत्कार है , एक सच के मुँह से मुखौटा उतारता आईना है जिसे इंसानी भूख ने शर्मसार किया है , इंसानी कानूनों ने जहाँ पहरेदारी की मोहर लगाई है। ज़िन्दगी की जद्दोजहद का ऐसा  चित्रण जो रोज सामने होता है मगर किसी को फर्क नहीं पड़ता। 

" पानी " कविता जहाँ ना केवल संस्कारों पर वार करती है वहाँ पानी की किल्लत के साथ ज़िंदगी जीने को विवश इंसानी फितरत को भी बयां करती है।  ज़िन्दगी है तो जीना भी पड़ेगा मगर वक्त की बेरहमी कब किस रूप में उतर आये और खुद के आँखों का पानी भी जब सागर सा लगे , कह नहीं सकते।  वक्त के साथ कैसे बदल जाती हैं संस्कारों की परिभाषाएँ जो अंदर ही अंदर कचोटती तो हैं मगर इंसान विवश है इस सच के साथ जीने को क्योंकि कहीं ना कहीं वो खुद भी दोषी है , कहीं ना कहीं उन्होंने किया है खुद अपना दोहन तो फिर आज किस पर और कैसे करें दोषारोपण। 

देवेन्द्र पाण्डेय की कवितायेँ मन को तो छूती ही हैं साथ में सोचने को भी विवश करती हैं।  अपने आस पास घटित रोजमर्रा के जीवन से किरदारों सरोकारों को उठाना और उस दर्द को महसूसना जिसे आमतौर पर हम अनदेखा कर जाते हैं यही होती है कवि की दृष्टि , कवि की संवेदना , उसके ह्रदय की कोमलता जो उसे औरों से अलग करती है और उसका एक विशिष्ट स्थान बनाती है। 

 मिलती हूँ अगली बार अगले कवि के साथ ............

18 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

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Shah Nawaz ने कहा…

एक अच्छा प्रयास है यह...

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

सुंदर समीक्षा। बालार्क की किरणों को दूर-दूर तक फैलाने का आपका यह प्रयास वंदनीय है।

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

बहुत सुन्दर समीक्षा !
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (16-11-2013) को "जीवन नहीं मरा करता है" : चर्चामंच : चर्चा अंक : 1431 पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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मुहर्रम की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar ने कहा…

सुन्दर समीक्षा

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुंदर !

सदा ने कहा…

आपका यह प्रयास सराहनीय है आपकी नज़र से बालार्क को पढ़ना निश्चित रूप से मनभावन होगा ... देवेन्‍द्र जी को बहुत-बहुत बधाई आपका आभार

राजीव कुमार झा ने कहा…

सुंदर समीक्षा.

Unknown ने कहा…

सराहनीय प्रयास , बधाई

Arun sathi ने कहा…

सार्थक प्रयास

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत ही सुन्दर लाजवाब समीक्षा ... देवेन्द्र जी संवेदनशील रचनाकार हैं ...

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सुंदर समीक्षा ...देवेन्द्रजी की रचनाएं प्रभावित करती हैं ....

Udan Tashtari ने कहा…

गज़ब!!

Udan Tashtari ने कहा…

गज़ब!!

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर और प्रभावी समीक्षा...

pran sharma ने कहा…

AAPKAA JITNA ACHCHHAA PADYA HAI
UTNA ACHCHHAA GADYA BHEE HAI .
SMEEKSHA KARNE MEIN BHEE AAP
MAAHIR HAIN .

Sadhana Vaid ने कहा…

वन्दना जी बालार्क की किरणों को आप नये आयाम एवँ विस्तार दे रही हैं यह देख कर हार्दिक प्रसन्नता हुई ! देवेन्द्र पाण्डेय जी की रचनाओं की बहुत ही सुंदर समीक्षा की है ! उन्हें तथा आपको भी अनेकानेक शुभकामनायें !