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शनिवार, 27 जुलाई 2013

एक थिरकती आस की अंतिम अरदास


जो पंछी अठखेलियाँ किया करता था कभी 
मुझमें रिदम भरा करता था जो कभी 
बिना संगीत के नृत्य किया करता था कभी 
वो मोहब्बत का पंछी आज धराशायी पड़ा है 
जानते हो क्यों ?
क्योंकि ………तुम नहीं हो आस पास मेरे 
अरे नहीं नहीं ………ये मत सोचना 
कि शरीरों की मोहताज रही है हमारी मोहब्बत 
ना ना …………मोहब्बत की भी कुछ रस्में हुआ करती हैं 
उनमे से एक रस्म ये भी है ……क़ि तुम हो आस पास मेरे 
मेरे ख्यालों में , मेरी सोच में , मेरी साँसों में 
ताकि खुद को जिंदा देख सकूं मैं ………
मगर तुम अब कहीं नहीं रहे
ना सोच में , ना ख्याल में , ना साँसों के रिदम में 
मृतप्राय देह होती तो मिटटी समेट  भी ली जाती 
मगर यहाँ तो हर स्पंदन की जो आखिरी उम्मीद थी 
वो भी जाती रही…………….तुम्हारे न होने के अहसास भर से 
और अब ये जो मेरी रूह का जर्जर पिंजर है ना 
इसकी मिटटी में अब नहीं उगती मोहब्बत की फसल 
जिसमे कभी देवदार जिंदा रहा करते थे 
जिसमे कभी रजनीगंधा महका करते थे 
यूं ही नहीं दरवेशों ने सजदा किया था 
यूं ही नहीं फकीरों ने कलमा पढ़ा था 
यूं ही नहीं कोई औलिया किसी दरगाह पर झुका था 
कुछ तो था ना ……………क़ुछ तो जरूर था 
जो हमारे बीच से मिट गया 
और मैं अहिल्या सी शापित शिखा बन 
आस के चौबारे पर उम्र दर उम्र टहलती ही रही 
शायद कोई आसमानी फ़रिश्ता 
एक टुकड़ा मेरी किस्मत का लाकर फिर से 
गुलाब सा मेरे हाथों में रखे 
और मैं मांग लूं उसमे खुदा से ……तुम्हें 
और हो जाए कुछ इस तरह सजदा उसके दरबार में 
झुका  दूं सिर कुछ इस तरह कि फिर कहीं झुकाने की तलब न रहे 
उफ़ …………कितना कुछ कह गयी ना 
ये सोच के बेलगाम पंछी भी कितने मदमस्त होते हैं ना 
हाल-ए -दिल बयाँ करने में ज़रा भी गुरेज नहीं करते 
क्या ये भी मोहब्बत की ही कोई अनगढ़ी अनकही तस्वीर है …………जानाँ
जिसमे विरह के वृक्ष पर ही मोहब्बत का फूल खिला करता है 
या ये है मेरी दीवानगी जिसमे 
खुद को मिटाने की कोई हसरत फन उठाये डंसती रहती है 
और मोहब्बत हर बार दंश पर दंश सहकर भी जिंदा रहती है 
तुम्हारे होने ना होने के अहसास के बीच के अंतराल में 
एक नैया मैंने भी उतारी है सागर में 
देखें …उस पार पहुँचने पर तुम मिलोगे या नहीं 
बढाओगे या नहीं अपना हाथ मुझे अपने अंक में समेटने के लिए 
मुझमे मुझे जिंदा रखने के लिए 
क्योंकि …………जानते हो तुम 
तुम  , तुम्हारे होने का अहसास भर ही जिंदा रख सकते हैं मुझमे मुझे 

क्या मुमकिन है धराशायी सिपाही का युद्ध जीतना बिना हथियारों के 
क्योंकि 
उम्र के इस पड़ाव पर नहीं उमगती उमंगों की लहरें 
मगर मोहब्बत के बीज जरूर किसी मिटटी में बुवे होते हैं 

( एक थिरकती आस की अंतिम अरदास है ये ……जानाँ )

16 टिप्‍पणियां:

Dr. Shorya ने कहा…

वाह बहुत सुंदर,

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

Bahut Khoob !

vijay kumar sappatti ने कहा…

वंदना ,
नज़्म बहुत ले लिए हुए है . एक नदी की तरह . अलग अलग किनारों को छूती हुई सी.
इसका दूसरा हिस्सा और आखरी हिस्सा बहुत प्रभावशाली बन पढ़ा है . और बिम्ब भी अच्छे बने है ...
कुल मिलकर , बधाई की मिठाई !!!!

विजय

इमरान अंसारी ने कहा…

सुभानाल्लाह........खुबसूरत लफ़्ज़ों से सजी पोस्ट।

Aparna Bose ने कहा…

prem aur dard ka sundar talmel ... congrats

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत सुंदर,...

Unknown ने कहा…

वाह बहुत खूब्सूरत और बेहद मर्मस्पर्शी जज्बात पिरोये हैं आपने बधाई

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

सुंदर और गहन रचना.

रामराम.

विभूति" ने कहा…

कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति .....

ashokkhachar56@gmail.com ने कहा…

वाह बहुत सुंदर.......

Rachana ने कहा…

sunder kavita iski antim do panktiyon ne gahri chhap chhodi hai
rachana

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज रविवार (28-07-2013) को त्वरित चर्चा डबल मज़ा चर्चा मंच पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

संध्या शर्मा ने कहा…

बहुत सुंदर...

HARSHVARDHAN ने कहा…

सुन्दर रचना।।

नये लेख : प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक : डॉ . सलीम अली

जन्म दिवस : मुकेश

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कितना कुछ समेटने का प्रयास है ये नज़म ... दिल के भाव, खुद से ही होता वार्तालाप ... जेवण का अंतिम सत्य ... खूबसूरत शब्दों का ताना-बाना ...

Dr ajay yadav ने कहा…

प्रेम आकाश हैं ,मुहब्बत का पंक्षी हमेशा उड़ान भरता रहे ,पंखो के रंग ...चटकीले रहे ,शुभकामनाएँ
“सफल होना कोई बडो का खेल नही बाबू मोशाय ! यह बच्चों का खेल हैं”!{सचित्र}
“जिंदगी {आपसे कुछ कह रही हैं ....}