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शनिवार, 20 जुलाई 2013

" बाइपास "............मेरा दृष्टिकोण


आयकर एवं वैट अधिवक्ता मलिक राजकुमार जी साहित्य जगत में एक जाना पहचाना नाम हैं । कितने ही कहानी संग्रह, कविता संग्रह उपन्यास , यात्रा वर्णन आदि उनके छप चुके हैं। इसके अलावा कविता , गज़ल संग्रह आदि का संपादन भी कर चुके हैं साथ में उनकी किताबों पर लघु शोध  भी हो चुके हैं कुछ पर पीएच डी भी हुई है।  इसके अलावा दूरदर्शन रेडियो आदि पर कहानी वार्ता कविता आदि प्रसारित होती रही हैं पंजाबी , ब्रज आदि भाषाओं में । ऐसे व्यक्तित्व के धनी ने मुझे अपना उपन्यास स्वंय भिजवाकर अनुगृहित किया ।

मलिक राजकुमार का उपन्यास बाइपास पढ़ा जो राजकुमार जी ने सस्नेह मुझे भिजवाया . ईश्वर का करम रहा कि उपन्यास पढने के लिए बहुत ज्यादा बिजी होते हुए भी वक्त मिलता रहा और किश्तों में पढ़ती रही . कभी इतना वक्त हुआ करता था कि दो घंटे में मोटे से मोटा उपन्यास पढ लिया करती थी मगर अब वक्त की कमी से किश्तों में गुजरती है ज़िन्दगी।

इस उपन्यास की खासियत ये है कि इसमें उस ज़िन्दगी का चित्र खींचा गया है जिसकी तरफ हम देखते तो हैं मगर कभी सोचते नहीं . एक अजीब सा कसैलापन अपने अंतस में समेटे हम  उन चरित्रों से रु-ब -रु तो होते हैं मगर वो कैसे ऐसे बनते हैं , कैसे उनकी सोच , उनके व्यवहार और बातचीत में एक कडवाहट शामिल हो जाती है हम कभी उस तरफ देख नहीं पाते क्योंकि हमारी दृष्टि सिर्फ हम तक ही सीमित रहती है मगर राजकुमार जी की दृष्टि ने उन चरित्रों के जीवन के उन भेदों पर निशाना लगाया है जो तभी किया जा सकता है जब इंसान या तो खुद उन हालात से गुजरा हो या उसने उन हालातों को बहुत करीब से देखा या सुना हो . अब ये तो वो ही जाने कि कैसे उन्होंने प्रत्येक चरित्र को आत्मसात किया और इतना अद्भुत चित्रण किया . 

बाइपास वो जगह होती है जहाँ से न जाने कितनी जिंदगियां रोज गुजरती हैं किसी न किसी रूप में मगर बाइपास वहीँ रहता है कुछ इसी तरह इन्सान के जीवन में भी एक बाइपास होता है जिससे वो अपने अन्दर की उथल पुथल से गुजरता है मगर बाइपास पर उड़ने वाली धुल को खुद पर हावी नहीं होने देता न ही अपने चरित्र पर दाग लगने देता . 

बाइपास एक ऐसी जगह है जहाँ ट्रक वालों की ज़िन्दगी है तो कहीं ढाबे वालों का संघर्ष तो कहीं बचपन को लांघ सीधे प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करते साइकिल के पंक्चर लगाने वालों की आँख में उभरी शाम की रोटी के लिए लडती ज़िन्दगी की दास्ताँ है और इसी में कुमार नाम के शख्श की जद्दोजहद जो ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पर जीना चाहता है और जीता भी है अपने नियमों और शर्तों पर , किसी प्रकार का समझौता किये बगैर . न ज़िन्दगी से समझौता न समाज से न अपने उसूलों से जो आसान नहीं था क्योंकि जहाँ पूरा तालाब ही कीचड़ से भरा हो वहां कैसे  छींटों से बचा  जा सकता है मगर कुमार ने अपनी दृढ इच्छा शक्ति के बलबूते पर ना केवल ये कर दिखाया बल्कि वहाँ के लोगों के जीवन को भी बदला और समाज के कल्याण के लिये भी लाभकारी योजनाओं को कार्यान्वित किया बेशक अपना फ़ायदा उसका भी था मगर उसका उसने दुरुपयोग नहीं किया जो ये दर्शाता है कि यदि इंसान एक बार हिम्मत कर ले तो अपने चरित्र से समझौता ना करते हुये भी जीवन को सही दिशा में क्रियान्वित करते हुये एक सफ़ल जीवन जी सकता है । बेशक समाज की विभिन्न विडम्बनायें साथ साथ चलती रहीं और लेखक उन पर भी दृष्टिपात करता रहा और कुमार का उन पर प्रहार भी होता रहा मगर पूरे समाज को बदलना आसान नहीं इसलिये कुमार को भी कभी कभी चुप लगाना पडा मगर फिर भी अपने विचारों से बदलाव लाने का उस का प्रयास जारी रहा ।

लेखक का ये प्रयास बेहद सराहनीय है कि उसने समाज के उस अंग की ओर ध्यान दिलाया जिस तरफ़ हम देखना भी नहीं चाहते कि कैसे ज़िन्दगी समझौतों की नाव पर गुजरती है बिना किसी पतवार के । जहाँ दिन रात एक समान होते हैं और पेट की भूख हर समझौते को विवश कर देती है मगर उसमें भी कुछ चरित्र ज़िन्दादिली बरकरार रखते हैं क्योंकि जीवन है तो उसमें संघर्ष भी है और समझौते भी और उनके साथ जीने की जद्दोजहद भी …………बस इसी का नाम तो है बाइपास।
 नटराज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ये उपन्यास यदि आप पढना चाहते हैं तो मलिक राजकुमार जी से इन नंबर पर संपर्क कर सकते हैं 

M: 09810116001

     011-25260049

15 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सधे हुये शब्दों में उपन्यास की समीक्षा लिखी है ..... पढ़ने की जिज्ञासा हो उठी है ...आभार

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

उपन्यास का सुन्दर संक्षिप्त विवेचन, जानकारी के लिए आभार वन्दना जी !

Maheshwari kaneri ने कहा…

सुन्दर संक्षिप्त विवेचन,बहुत बढिया॥ आभार वन्दना जी

डॉ टी एस दराल ने कहा…

सुन्दर समीक्षा ।
बाईपास का एक अलग दृष्टिकोण।

अरुन अनन्त ने कहा…

नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (21 -07-2013) के चर्चा मंच -1313 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

आपके संक्षिप्त विवेचन पढ़कर लगा कि उपन्यास ही पढ़ लिया।

ashokkhachar56@gmail.com ने कहा…

बहुत सधे हुये शब्दों में उपन्यास की समीक्षा लिखी है .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर समीक्षा!
साझा करने के लिए शुक्रिया!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अच्छी समीक्षा है ... जानकारी का आभार ..

kshama ने कहा…

Ye upanyas to padhnahee hoga!

राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति बन्दना जी

Unknown ने कहा…

सुंदरत अभिव्यक्ति शुक्रिया वंदना जी

Unknown ने कहा…

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति शुक्रिया वंदना जी

Unknown ने कहा…

उपन्यास को जिस शिद्दत से पढ़ा गया ... लेख को असीम संतोष मिला... आपकी पहुँच सही है १० साल बाईपास पर गुज़ारे हैं.एक एक चरित्र को देखा परखा है... अश्लीलता से बचने को बहुत कुछ नहीं दिया गया. आपका बहुत बहुत आभार

Unknown ने कहा…

उपन्यास को जिस शिद्दत से पढ़ा गया ... लेख को असीम संतोष मिला... आपकी पहुँच सही है १० साल बाईपास पर गुज़ारे हैं.एक एक चरित्र को देखा परखा है... अश्लीलता से बचने को बहुत कुछ नहीं दिया गया. आपका बहुत बहुत आभार