किसान हूँ ना किसना फिर भी बिना खेती के उपकरणों के पैदावार करना और बिना अधरों पर वंशी धरे खुद को सम्मोहित करने का हुनर जान गयी हूँ ........... रिस रिस कर तपती पटरी पर ज़िन्दगी की रेल धडधडाती गुजर रही है बिना आंच ताप को महसूस किये और मोहब्बत के जश्न भी मना रही है सिगार सी सुलग सुलग कर ...........क्या कभी मेरे साथ एक कश तुम भी लेने आओगे ........क्या कभी तुम कटौथी में गंगाजल भर एक घूँट भरोगे और करोगे इश्क का समंदर पार .............मेरी तरह !!!!!ये एक सवाल है तुमसे ..........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !
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बुधवार, 3 जुलाई 2013
ओ मेरे !……………8
दर्द कभी हुआ ही नहीं ..............हा हा हा ............सोच रहे होंगे फिर ये समंदर कैसे बना ............अरे जानां !!! कुछ फसलों को उगाने के लिए प्रेम का बीज रोंपा जाता है जिसमे से हरी हरी कोंपलें जब फूटा करती हैं विरह की तब जाकर दर्द का जन्म हुआ करता है और दर्द को पैदा करने के लिए मौत से इश्क किया करती हूँ .............इसलिए दर्द होता नहीं है पैदा किया जाता है ........खुद की आहुति देकर , अपनी रूह को नोंच खसोट कर बीजना पड़ता है उसमे इश्क का कीला ........उम्र भर के लिए , एक जन्म के लिए नहीं ..............इस कायनात के आखिरी छोर तक के लिए ...............तब जाकर दर्द की खिलखिलाती , लहलहाती पैदावार होती है जो उम्र की चाशनी में डूबा डूबा कर , तीखी लहर बन लहू में दौड़ा करती है और इश्क की कहानी मुकम्मल होती है ..........जानां !!!
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11 टिप्पणियां:
बेजोड़ , सुंदर रचना, शब्दों का चयन अतिसुंदर , आपकी लेखनी को बहुत शुभकामनाये,
यहाँ भी पधारे
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/06/blog-post_8682.html
आपका गद्य भी काव्य का आनन्द देता है!
एक ही सांस में पढ़ गया ...
शब्दों का खेल या भावों का झंझावात ...
हमेशा की तरह बहुत सुंदर
किशना .. भी किसान ही है ... अद्भुत
bejod abhivaykti..
भावों में अपने साथ बहा ले जाती बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
सुंदर रचना,
uttam..dhaarpravaah gartimaan kriti..bahut sundar.
मनोभावों को बड़े मनोयोग से संजोया है. काव्य की अनुभूति देता सुंदर गद्य प्रस्तुति.
सुन्दर रचना
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