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बुधवार, 24 जुलाई 2013

ओ मेरे !.......10

आँख में उगे कैक्टस के जंगल में छटपटाती चीख का लहुलुहान अस्तित्व कब हमदर्दियों का मोहताज हुआ है फिर चाहे धुंधलका बढता रहा और तुम फ़ासलों से गुजरते रहे ……ना देख पाने की ज़िद पर अडी इन आँखों का शगल ही कुछ अलग है …………नहीं , नहीं देखना ………मोहब्बत को कब देखने के लिये आँखों की लालटेन की जरूरत हुयी है …………बस फ़ासलों से गुजरने की तुम्हारी अदा पर उम्र तमाम की है तो क्या हुआ जो तुम्हें मैं नज़र ना आयी , तो क्या हुआ जो तुम्हारे कदमों में ना इस तरफ़ मुडने की हरकत हुयी ………इश्क के अंदाज़ जुदा होते हैं फ़ासलों में भी मोहब्बत के खम होते हैं ………जानाँ !!! 

अब मुस्कुराती हूँ मैं अपने जीने के अन्दाज़ पर ………फिर क्या जरूरत है रेगिस्तान में भटकने की …………कैक्टस के फ़ूल यूँ ही नहीं सहेजे जाते …………उम्र फ़ना करनी पडती है धडकनो का श्रृंगार बनने को…………और मैंने तो खोज लिया है अपना हिमालय …………क्या तुम खोज सकोगे कभी मुझमें , मुझसा कुछ ………यह एक प्रश्न है तुमसे ओ मेरे !

12 टिप्‍पणियां:

Maheshwari kaneri ने कहा…

वाह बहुत बढ़िया प्रस्तुति..

Dr. Shorya ने कहा…

बहुत सुंदर रचना ,

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अच्छा प्रश्न है...!
रचना भी सुन्दर है!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

गहरा मंथन ... मैंने तो खोज लिए है अपना हिमालय ... क्या आ सकोगे उन ऊंचाइयों तक ... छू सकोगे उन्हें ... शायद कभी नहीं ... अंदर की कशमकश को दिए शब्द ...

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर...

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही सशक्त.

रामराम.

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

ख़ुद से जूझता हुआ प्रश्न...
जिससे पूछा गया है प्रश्न... वही समझ सके शायद...

~सादर!!!

ashokkhachar56@gmail.com ने कहा…

वाह! बहुत सुंदर.

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…


प्रश्न सुन्दर है पर उत्तर ......?????????
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Aparna Bose ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति.

विभूति" ने कहा…

सशक्त और प्रभावशाली रचना.....

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

उद्वेलित करते प्रश्न !