लॉक डाउन के माहौल में, कोरोना की फ़िक्र में मची चारों तरफ अफरा तफरी .....रात दिन सिर्फ एक ही फ़िक्र में गुजर रहे हैं सभी के.......दूसरी तरफ कामगारों का पलायन एक नयी समस्या बन उभरा तो सोचते सोचते कुछ ख्याल यूँ दस्तक देने लगे :
नहीं होती घर वापसी किसी की भी कभी पूरी तरह
जो गया था वो कोई और था
जो आया है वो कोई और है
तुम जब जाते हो
छोड़ जाते हो थोडा सा
गाँव की मिटटी में खुद को
जो सहेजे रखती है तुम्हें एक लम्बे अरसे तक
मगर वो अरसा कभी कभी इतना लम्बा हो जाता है
कि मिटटी भी भूलने लगती है
तुम्हारी किलकारियां
तुम्हारी शैतानियाँ
तुम्हारा चेहरा
वतन में बेवतन हो जाए जैसे कोई
एक लम्बा वक्फा काफी होता है
स्मृतियों पर जाले बनाने को
तुम झाड़ना चाहो फिर चाहे जितना
वक्त किसी पैकेज का मोहताज नहीं होता
और नमी मिटटी की हो या आँखों की
एक अरसे बाद सूख ही जाती है
अच्छा सच बताना
तुम जो आये - क्या वही हो?
क्या तुम साथ नहीं लाये
अपनी मजबूरियों की पतंग
क्या तुम भूल पाओगे
अपने पाँव में पड़ी गांठें
क्या याद नहीं आयेंगे तुम्हें
शहर की सहूलियतों के लिहाफ
जिन्हें ओढने के तुम हो चुके हो आदी
ये तो मजबूरी की बेसमय बजती शहनाई से आजिज हो
किया है तुमने गाँव की तरफ रुख
ये वापसी घर वापसी नहीं
ये है एक अवसर
ये है एक मजबूरी
ये है एक सहूलियत
ये है एक पड़ाव
क्योंकि कोई भी वापसी कभी पूरी वापसी हो ही नहीं सकती
अकाट्य सत्य है ये .......
7 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (02-04-2020) को "पूरी दुनिया में कोरोना" (चर्चा अंक - 3659) पर भी होगी।
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मित्रों!
कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं भी नहीं हो रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत दस वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
सुन्दर प्रस्तुति
वर्तमान को दर्शाती आपकी पंक्ति आज का यथार्थ है और शायद जीवन का भी। ये बहुत बड़ा सबक दे कर जाएगा समय यदि हम ले सके तो। बहुत बढ़िया और शानदार हमेशा की तरह दोस्त जी
सही बात कही ।
बहुत बढ़िया।
बहुत बढ़िया।
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