मुझे बचाने थे पेड़ और तुम्हें पत्तियां
मुझे बचाने थे दिन और तुम्हें रातें
यूँ बचाने के सिलसिले चले
कि बचाते बचाते अपने अपने हिस्से से ही
हम महरूम हो गए
हो तो यूँ भी सकता था
तुम बचाते पृथ्वी और मैं उसका हरापन
सदियों के शाप से मुक्ति तो मिल जाती
अब बोध की चौखट पर फिसले पाँव में
कितने ही घुंघरू बांधो
नर्तकी भुला चुकी है आदिम नृत्य
ईश्वर गवाह है इस बार ....
8 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-12-2018) को "कुम्भ की महिमा अपरम्पार" (चर्चा अंक-3189) (चर्चा अंक-3182) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...
बहुत बढ़िया
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अक्षय गौरव त्रैमासिक ई-पत्रिका के प्रथम आगामी अंक ( जनवरी-मार्च 2019 ) हेतु हम सभी रचनाकारों से हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। 15 फरवरी 2019 तक रचनाएँ हमें प्रेषित की जा सकती हैं। रचनाएँ नीचे दिए गये ई-मेल पर प्रेषित करें- editor.akshayagaurav@gmail.com
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https://www.akshayagaurav.com/p/e-patrika-january-march-2019.html
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