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बुधवार, 27 सितंबर 2017

भय के ५१ पन्ने

लड़ो स्त्रियों लड़ो
लड़ो कि अब लड़ना नियति है तुम्हारी

करो दफ़न
अपने भय के उन ५१ पन्नो को
जो अतीत से वर्तमान तक
फडफडाते रहे , डराते रहे
युग परिवर्तन का दौर है ये

अतीत और वर्तमान की केंचुलियों में से
तुम्हें चुनना है अपना भविष्य
आने वाली पीढ़ी का भविष्य
तो क्या जरूरी है
शापित युग से उधार ली ही जाएँ साँसें
क्यों नहीं खदेड़ती शापित युग की परछाइयों को

भविष्य की नींव के लिए जरूरी है
अपनी न और हाँ के अंतर को समझना
न केवल समझना बल्कि समझाना भी
ये युग तुम्हारा है
ये जीवन तुम्हारा है
ये देह तुम्हारा है
और भविष्य परछाइयों की रेत से नहीं बना करता
उसके लिए जरूरी है
उलटना आसमां को 



न मतलब न भी नहीं होता
न मतलब हाँ भी नहीं होता
न मतलब वो होता है जो उन्होंने समझा होता है
वो देंगे परिभाषा
और अपनी बनायी परिभाषाएं ही करेंगे इतिहास में वो दर्ज
तो क्या हुआ
कोई दुर्गा कह दे या काली
लड़की कहे दे या दे गाली
अंततः वर्चस्व स्थापित करने को
जरूरी है तानाशाही...जानते हैं वो

चलो बदल लो इस बार
उनके भय को अपने भय से
कि सलीब पर हर बार तुम ही चढो, जरूरी नहीं
इस बार जितना वो दबाएँ डराएँ धमकाएं
उतना तुम खुलो, खिलो और महको
कि
भयभीत हैं वो
तुमसे, तुम्हारी सोच से , तुम्हारी खोज से

वक्त ने दिया है ताबीज तुम्हारे हाथ में
अब तुम पर है
सिरहाने रख सोना चाहती हो
गले पहन इठलाना
या उसे खोल पढना

दहशत के आसमान में सुराख के लिए
जरूरी है जपना ये महामंत्र
लड़ो स्त्रियों लड़ो
लड़ो कि अब लड़ना नियति है तुम्हारी 


©वन्दना गुप्ता vandana gupta 

1 टिप्पणी:

Onkar ने कहा…

सार्थक और सटीक रचना