तेरी जिद की रेत को उलट कर
ले मैंने भर दी है
अब अपने जिद के गिलास में
यूं आसमां के चुहचुहाने के दिनों का
हो चुका है अब वाष्पीकरण
सुना है न 'फ्री सेक्स'' के बारे में
और अब
समझ चुकी हूँ
वास्तव में स्त्री की फ्रीडम
न न , गलत मत समझना
मेरा वो मतलब नहीं
तुम और तुम्हारी सोच
हमेशा खूँटी पर लटकी कमीज सी ही रही
जिसे जब चाहे पहना
और जब चाहे उतारा
लेकिन
मेरे मायने हमेशा तुमसे उलट ही रहे
मैंने बदला है सिर्फ केशों का रंग
केश नहीं
और देखो
दर्प से जगमगाता चेहरा
कैसे तुम्हारे न केवल गले की
बल्कि
आँख की भी फांस बन गया है
सुनो
शब्दों को तोड़ो मरोड़ो मत
उनके वास्तविक अर्थ को समझो
ये सेक्स वो सेक्स नहीं है
बल्कि वो है
जो अक्सर पूछा जाता रहा है
सेक्स : मेल/फीमेल ...वाला
और इस बार जिद की आंच पर
चढ़ा है फीमेल वाला
और फ्री
इसका अर्थ भी
तुम्हारी मानसिक कलुषता और दिमागी दिवालियेपन
तक सीमित नहीं है
यानि हो गयी है वो स्वतंत्र
स्वयं के निर्णय को कार्यान्वित करने को
हाँ या न कहने को
फिर वो जीवनसाथी का चुनाव हो
या शारीरिक सम्बन्ध
या फिर सामाजिक आर्थिक निर्णयों में भागीदारी
लेकिन
तुम वहीँ के वहीँ रहे
हंगामाखेज ...
यूं चाहे जितने निकाल ले कोई
फ्री सेक्स के मनचाहे अर्थ
बस यही है फर्क
तुम्हारी और मेरी सोच में
अब तुम सोच लो
तुम कहाँ हो खड़े ?
जानते हो .....जिदों के पर्याय नहीं होते
और वक्त की आंच पर
जो सुलगी होती हैं
उन दोपहरों को ख़ारिज करने के कोई मौसम नहीं होते
ये है वक्त का बदलता मापदंड ...
ले मैंने भर दी है
अब अपने जिद के गिलास में
यूं आसमां के चुहचुहाने के दिनों का
हो चुका है अब वाष्पीकरण
सुना है न 'फ्री सेक्स'' के बारे में
और अब
समझ चुकी हूँ
वास्तव में स्त्री की फ्रीडम
न न , गलत मत समझना
मेरा वो मतलब नहीं
तुम और तुम्हारी सोच
हमेशा खूँटी पर लटकी कमीज सी ही रही
जिसे जब चाहे पहना
और जब चाहे उतारा
लेकिन
मेरे मायने हमेशा तुमसे उलट ही रहे
मैंने बदला है सिर्फ केशों का रंग
केश नहीं
और देखो
दर्प से जगमगाता चेहरा
कैसे तुम्हारे न केवल गले की
बल्कि
आँख की भी फांस बन गया है
सुनो
शब्दों को तोड़ो मरोड़ो मत
उनके वास्तविक अर्थ को समझो
ये सेक्स वो सेक्स नहीं है
बल्कि वो है
जो अक्सर पूछा जाता रहा है
सेक्स : मेल/फीमेल ...वाला
और इस बार जिद की आंच पर
चढ़ा है फीमेल वाला
और फ्री
इसका अर्थ भी
तुम्हारी मानसिक कलुषता और दिमागी दिवालियेपन
तक सीमित नहीं है
यानि हो गयी है वो स्वतंत्र
स्वयं के निर्णय को कार्यान्वित करने को
हाँ या न कहने को
फिर वो जीवनसाथी का चुनाव हो
या शारीरिक सम्बन्ध
या फिर सामाजिक आर्थिक निर्णयों में भागीदारी
लेकिन
तुम वहीँ के वहीँ रहे
हंगामाखेज ...
यूं चाहे जितने निकाल ले कोई
फ्री सेक्स के मनचाहे अर्थ
बस यही है फर्क
तुम्हारी और मेरी सोच में
अब तुम सोच लो
तुम कहाँ हो खड़े ?
जानते हो .....जिदों के पर्याय नहीं होते
और वक्त की आंच पर
जो सुलगी होती हैं
उन दोपहरों को ख़ारिज करने के कोई मौसम नहीं होते
ये है वक्त का बदलता मापदंड ...
3 टिप्पणियां:
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सुन्दर प्रस्तुति
सोचोंं के फर्क को दर्शाती वेहतरीन रचना। अच्छी लगी ।
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