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मंगलवार, 8 मार्च 2016

उत्सवकाल

वो देह का संधिकाल था
जिसे दफ़न करना जरूरी था

ये देह का नहीं
स्त्री का उत्सवकाल है
जिसे सिरमौर बनाना जरूरी है

देह से स्व तक के सफ़र में
देकर आहुतियाँ
निखर उठी हैं अविछिन्न रश्मियाँ
स्वाभिमान की , स्वत्व की , गौरत्व की

अब दे चुकी है तिलांजलि , जलांजलि
वो
नर्तन की बदल चुकी हैं मुद्राएँ
तिनका तोड़ दिया है
निब तोड़ चुकी है
फिर क्यों अलाप रहे हो वो ही बेसुरे राग
जिनके गायन से अब नहीं बरसा करते बेमौसम बादल
नहीं जला करते बुझे हुए चिराग फिर से

ये आज उसके बदले हुए तौर तरीके हैं
उत्सव मनाने को जरूरी नहीं
पुरातन तौर तरीके ही आजमाए जाएँ
क्या हुआ जो आज थिरक लेती है
उसकी ख़ामोशी डी जे की धुन पर होकर मतवाली

आधुनिकता को न केवल
ओढा बिछाया या लपेटा है उसने
बल्कि
जान गयी है कैसे पौंछे जाते हैं
जूते , मुंह और हाथ
तुम्हारे गरियाने से पहले .......

आज बदलनी ही पड़ेगी वो इबारतें जिन्होंने खोदी हैं कब्रें

ये आज की स्त्री की गौरवमयी गाथा है
स्वीकारनी तो पड़ेगी ही
फिर माथा नवाकर स्वीकारो या हलक में ऊंगली डलवाकर ......निर्णय तुम्हारा है !!!

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

आक्रोश तो अच्छा है , मगर साहित्य स्रजन मे जरूरी तो नहीं , आप अच्छा लिखती है . लेखन बनाए रखें , कृपया अन्यथा न ले.

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2277 में दिया जाएगा
धन्यवाद