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गुरुवार, 9 जुलाई 2015

यूँ तो नहीं बदलते देखा था कभी समुन्दरों का रंग

आह ! ये क्या हुआ
ये रक्त मेरा 
पीला कैसे पड़ गया
उफ़ ! अरे ये तो 
तुम्हारा भी सफ़ेद हो गया
कौन सा विकार 
घर कर गया
जो लहू दोनों का 
रंग बदल गया 
जितनी जल्दी नहीं बदलते 
मौसम भी रंग
उससे जल्दी कैसे
हल्दी घुल गयी 

सुना है हल्दी का रंग
जल्दी नहीं छूटा करता 
कपड़ों से
फिर शिराओं में बहता ये रंग
कैसे बदलेगा
जब त्वचा भी उसी रंग में रंग गयी है
और देखो तो सही
तुमने तो सफ़ेद चादर ही ओढ़ ली है 
सुना है कफ़न सफ़ेद ही होता है
जो चिता के साथ ही होम होता है

कैसे हो गया इतना सब कुछ
कौन से चेनाब का पानी पीया था
जो लाल रंग पर दूजा रंग चढ़ गया 
ये खुदपरस्ती , खुदगर्जी , खुदमुख्तारी 
कब और कैसे नकली जेवरों पर 
सोने का पानी चढ़ा देती है 
और सोने को भी फीका बना देती है 
पता ही नहीं चलता 

उफ़ क्या हो गया 
ये आज की दुनिया को

यूँ तो नहीं बदलते देखा था कभी समुन्दरों का रंग 

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

आज के दौर का कटु सच , बढ़िया रचना

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (11-07-2015) को "वक्त बचा है कम, कुछ बोल लेना चाहिए" (चर्चा अंक-2033) (चर्चा अंक- 2033) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'