पहली बार
तुम मुझसे दूर हुए
सबकी उम्मीदों को पूर्णतयः नकारते हुए
मैंने बाँधी छाती पर सिल
और किया तुम्हें विदा
बिना आँख में पानी लाये
आखिर तुम्हारे भविष्य का सवाल है
कैसे कर सकती थी अपशकुन
मगर माँ हूँ न
धक् धक् करता रहा सीना
हर पल ध्यान तुम पर ही लगा रहा
जब तक नहीं पहुँच गए तुम अपने गंतव्य पर
अब हर पल एक कमी कचोट रही है
रह रह मुझे मथ रही है
भविष्य दर्शन कर रही हूँ
अन्दर ही अन्दर सिहर रही हूँ
'ये तो सिर्फ ट्रेलर था
पिक्चर अभी बाकी है' का स्लोगन मुंह चिढ़ा रहा है
भविष्य दर्शन करा रहा है
हाँ , जाना ही होगा तुम्हें मुझसे दूर
अपने सुखद भविष्य हेतु ..........
सीखना होगा जीना मुझे मेरे एकांत के साथ ........
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (04-07-2015) को "सङ्गीतसाहित्यकलाविहीना : साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीना : " (चर्चा अंक- 2026) " (चर्चा अंक- 2026) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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