पृष्ठ

अनुमति जरूरी है

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लोग से कोई भी पोस्ट कहीं ना लगाई जाये और ना ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

'तुम्हारा तुमको अर्पण'

जो तुम्हें स्वीकार्य नहीं 
उस अस्तित्व की नकारता 
थोड़ी तुम्हारी आँखों की कलुषता 
और थोडा साम दाम दंड भेद 
के वो सारे बाण 
जिनसे घायल होती रही युगों से 
तुम्हारा  दिया तिरस्कार , उपेक्षा , व्यभिचार 
शिव के त्रिशूल से चुभते वेदना के शूल 
सब 'तुम्हारा तुमको अर्पण' की मुद्रा में लौटा रही हूँ 

क्योंकि  
गूंथ दिए है मैंने इस बार 
तुम्हारे सब बेशकीमती हथियार 
तो स्वाद तो किरकिरा होगा ही……… 

मत गुंधवाना आटा अब फिर मुझसे !!!

9 टिप्‍पणियां:

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना शनिवार 13 दिसंबर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-12-2014) को "धर्म के रक्षको! मानवता के रक्षक बनो" (चर्चा-1826) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-12-2014) को "धर्म के रक्षको! मानवता के रक्षक बनो" (चर्चा-1826) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

नेह का स्वाद कहाँ ,अब तो किरकिरा होगा ही !

Onkar ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

Onkar ने कहा…

बहुत खूब

pran sharma ने कहा…

Sundar Bhavabhivyakti.

MY VOICE MERI AWAZ ने कहा…

अति उत्तम