तुम्हें कहानी का पात्र बनाऊँ
या रखूँ तुमसे सहानुभूति
जाने क्या सोच लिया तुमने
जाने क्या समझ लिया मैंने
अब सोच और समझ दोनों में
जारी है झगड़ा
रस्सी को अपनी तरफ खींचने की कोशिश में
दोनों तरफ बह रही है एक नदी
जहाँ संभावनाओं की दलदल में
फंसने को आतुर तुम
पुरजोर कोशिशों के पुल बनाने में जुटे हो
और इधर
सूखी नदी में रेत के बिस्तर पर
निशानों के चक्रवात में
सूखा ठूँठ
न हँस पाता है और न रो
जानते हो क्यों ?
ईमानदार कोशिशें लहूलुहान ही हुआ करती हैं
बंजर भूमि में न फसल उगा करती है
सर्वमान्य सत्य है ये
जिसे तुम नकारना चाहते हो
मेरे खुले केशों पर लिखने को एक नयी कविता
पहले तुम्हें होना होगा ख़ारिज खुद से ही
और अतीत की बेड़ियों में जकड़ी स्मृतियों के साथ नहीं की जा सकती कोई भी वैतरणी पार
सुनो
ये मोहब्बत नहीं है
और न ही मोहब्बत का कोई इम्तिहान
बस तुम्हारी स्थिति का अवलोकन करते करते
रामायण के आखिरी सम्पुट सी एक अदद कोशिश है
तुम में चिनी चीन की दीवार को ढहाने की
ताकि उस पार का दृश्य देख सको तुम बिना आईनों के भी
समंदर होने को जरूरी तो नहीं न समंदर में उतरना
क्यों न इस बार एक समंदर अपना बनाओ तुम
जिसमे जरूरत न हो किसी भी खारे पानी की
न ही हो लहरों की हलचल
और न ही हो तुम्हारी आँख से टपका फेनिल आंसू
हो जाओगे हर जद्दोजहद से मुक्त
बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी
अपनी कोशिशों के पुल से मेरा नाम हटाने की
क्योंकि
मेरी समझ की तीसरी आँख जानती है
तुम्हारी सोच की आखिरी हद ………
तोडना तो नहीं चाहती तुझे
मगर जरूरी है सम्मोहन से बाहर निकालना
कैसे कहूँ
नाकाम कोशिशों का आखिरी मज़ार मत बना मुझे
बुतपरस्ती को ढूँढ ले बस अब एक नया खुदा.........
सुकून की दहलीज को सज़दा करने को ले झुका दी मैंने गर्दन
बस तू भी एक बार माथा रखकर तो देख
वैसे भी
सूखी नदी
बंजर भूमि
सूखे ठूँठ
सम्भावना के अंत को दर्शाती लोकोक्तियों से
कर रहे हैं आगाह
ज़ख्मों की मातमपुर्सी पर नहीं बजा करती शहनाइयाँ .……
फिर क्यों फरहाद से होड़ करने को आतुर है तेरे मन की प्रीत मछरिया ???
4 टिप्पणियां:
अद्भुत रचना.....बहुत सुन्दर...!!!
बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...
सुन्दर प्रस्तुति
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-12-2014) को "6 दिसंबर का महत्व..भूल जाना अच्छा है" (चर्चा-1820) पर भी होगी।
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सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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