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शनिवार, 29 नवंबर 2014

बाकी है

नहीं है मेरी मुट्ठी में चाहे सारा आस्माँ 
आस्माँ को छूने की अभी इक उडान बाकी है 

नहीं निकलतीं जिन पर्वतों से पीर की नदियाँ 
उनके सीनों में भी अभी इक तूफ़ान बाकी है 

नहीं हैं वाकिफ़ जो शहर रास्तों की खामोशियों से 
उन शहरों के कफ़न में भी अभी इक ख्वाब बाकी है 

नहीं है मेरी झोली  में समन्दर तो क्या 
ओक भर पीने की इक प्यास तो अभी बाकी है 

नहीं हूँ किसी भी आँख का नूर तो क्या 
खुद से आँख मिलाने का इक हुनर तो अभी बाकी है 

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (30-11-2014) को "भोर चहकी..." (चर्चा-1813) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत अहसास..बहुत सुन्दर..

Rachana ने कहा…

bahut khoob likha hai
badhai
rachana