नहीं है मेरी मुट्ठी में चाहे सारा आस्माँ
आस्माँ को छूने की अभी इक उडान बाकी है
नहीं निकलतीं जिन पर्वतों से पीर की नदियाँ
उनके सीनों में भी अभी इक तूफ़ान बाकी है
नहीं हैं वाकिफ़ जो शहर रास्तों की खामोशियों से
उन शहरों के कफ़न में भी अभी इक ख्वाब बाकी है
नहीं है मेरी झोली में समन्दर तो क्या
ओक भर पीने की इक प्यास तो अभी बाकी है
नहीं हूँ किसी भी आँख का नूर तो क्या
खुद से आँख मिलाने का इक हुनर तो अभी बाकी है
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (30-11-2014) को "भोर चहकी..." (चर्चा-1813) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ख़ूबसूरत अहसास..बहुत सुन्दर..
bahut khoob likha hai
badhai
rachana
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