हजारों मीलों का सफ़र
अब तय किया नहीं जाता
तुम्हारे ब्रह्माण्ड तक
अब मुझसे आया नहीं जाता
पाँव में कंकर चुभने लगते हैं
कभी तुम्हारी बेरुखी के
कभी तुम्हारी इकतरफा सोच के
रोज निकालती रही
बचाकर भी चलती रही
मगर आखिर कब तक बच पाती
आगे तो घनेरे जंगले थे
जहाँ सिर्फ और सिर्फ
कंकरों के ही अम्बार लगे थे
कब तक चुनती
और कब तक बचती
छलनी तो होना था
फिर चाहे जिस्म हो या रूह
अब बताओ तो सही
खून से लथपथ पाँव कहाँ रखूँ?
वैसे पाँव बचे ही कहाँ हैं
देखो तो
चमड़ी थी कभी
इसका तो पता ही नहीं
सारा माँस तक उधड चुका है
अब तो सिर्फ
हड्डियों का कंकाल बचा है
और हड्डियाँ बहुत चुभती हैं
जानते हो न
बस इसलिए छोड़ दिया मैंने
तुम्हारे साथ सफ़र तय करना
फासला रास्तों का होता
तो मिटा भी लेती
फासला उलझनों का होता
तो सुलझा भी लेती
मगर जानते हो न
गहरी खाइयों पर पुल नहीं बनाये जाते.............
9 टिप्पणियां:
waah...behatreen...bahut achcha likha hai aapne
बहुत सुंदर प्रस्तुति.
इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 05/10/2014 को "प्रतिबिंब रूठता है” चर्चा मंच:1757 पर.
Bahut sunder prastuti..... !!
behad khoobsurat vandna
वाह!
खूबसूरत भावपूर्ण रचना,
मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.
http://iwillrocknow.blogspot.in/
सुंदर भावपूर्ण रचना .
बहुत सुन्दर भावों को शब्दों में समेट कर रोचक शैली में प्रस्तुत करने का आपका ये अंदाज बहुत अच्छा लगा,
वाह क्या बात है
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