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सोमवार, 30 जून 2014

ओ मेरे !.............11

तुम भटकी हुई दिशा की वो गणना हो जिसके उत्तर ना भूत में हैं और ना ही भविष्य में फिर वर्तमान से मगज़मारी क्यों .......कहा था ना तुमने एक दिन .........और उसी दिन से प्रश्नचिन्ह बनी वक्त की सलीब पर लटकी खडी हूँ मैं ......यूँ  इश्क की बदमिज़ाज़ी को लिबास बना पहना है मैने .........अब चाहे जितनी आग उगलो जलते हुये भी हँस रही हूँ मैं ............महबूब के तोहफ़े यूँ भी सहेजे जाते हैं ...........जानाँ !!!

खुमारी दिन चढ़ने पर ही ज्यादा अंगड़ाईयाँ लिया करती है ..........और मेरी मोहब्बत में कभी शाम होती ही नहीं ...........बस खुमारियों की पाजेबें छनछनाती रहती हैं और मैं उनकी धुन पर नाचती उमगती रहती हूँ एक तिलिस्मी दुनिया का तिलिस्म बनकर ..........क्या जी सकते हो तुम भी मेरी तरह ...........ओ मेरे !

5 टिप्‍पणियां:

Vinay ने कहा…

Good one

Unknown ने कहा…

खूबसूरत

रश्मि शर्मा ने कहा…

बहुत सुंदर बयां हुए हैं मन के भाव

rohit ने कहा…

वन्दना जी ! शब्द विन्यास एवं भाव की गहराई क़ा क्या कह्ना।
चरै वेति >>>>>

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति।