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गुरुवार, 27 मार्च 2014

एक आम चेहरा भर ही तो हूँ

एक आम चेहरा भर ही तो हूँ 

नहीं लिखनी मुझे बनारस की सुबह , नहीं लिखनी मुझे दिल्ली की सर्दी , नहीं लिखनी मुझे मुंबई की शाम ...........बहुत हो चुका लिखना ये सब तो ........कब से इसी के आस पास तो घूम रही है ज़िन्दगी  और ज़िन्दगी के दर्शन ...........मैं हूँ कौन लिखने वाला ..........एक आम चेहरा भर ही तो हूँ ........अपने मौन के मगध में भ्रमण करता .............दर्शक दीर्घा का एक अंजान चेहरा जो वो देखता  है जो तुम दिखाते हो , वो जानता है जो तुम जनाते हो और वो करता है जो तुम करवाते हो ............तुम कौन ? कुछ अदद सरपरस्त जिन्हें शौक है सरपरस्ती का , जिन्हें शौक है खुद को सिद्ध करने का , जिन्हें शौक है विश्व पटल पर छाये रहने का और मैं दौड़ पड़ता हूँ तुम्हारी दिखाई झबरीली राहों पर बिना जाने , बिना सोचे , बिना विचारे ............क्योंकि मेरा कोई गणित है ही नहीं .............मैं वो इकाई हूँ जो है तो बस सिर्फ इसलिए क्योंकि संख्या बढाई जा सके .........एक वाकया लिखा जा सके या एक समूह बनाया जा सके .........इतना भर है मेरा कोना , इतनी भर है मेरी पहचान, इतनी भर है मेरी अहमियत .............जिसे बताया ही नहीं जाता उसका उपयोग .............बस पढाया जाता है इतना पाठ तुम्हें लड़ना नहीं है जीना है एक सादी सुकून भरी ज़िन्दगी और इसी को लक्ष्य बनाता मैं चल पड़ता हूँ भीड़ का हिस्सा बनकर ..........फिर कैसे मैं कुछ कह सकता हूँ या लिख सकता हूँ .............जब आँख होते हुए अँधा हूँ , जुबान होते गूंगा हूँ, कान होते बहरा हूँ .............नौ से पांच की ड्यूटी करता मेरा ढांचा दूसरा कोई दायरा जानता ही नहीं या जानना ही नहीं चाहता ............

मैं करता हूँ भ्रमण अपने विचारों के जंगल में जहाँ हवा किलोल कर रही होती है और कान में फुसफुसा जाती है कभी राजनितिक गलियारों की हलचलों को और मैं निकल पड़ता हूँ बिना जाने भीड़ का हिस्सा बनने  के लिए आखिर देश मेरा है , चलो एक आन्दोलन का हिस्सा बन जाने से शायद कोई अवार्ड मिल जाए , शायद व्यवस्था सुधर जाए , शायद कल आज़ादी की लडाई की तरह इसकी भी चर्चा हो और उन्हें सम्मानित करने का बीड़ा उठाया जाए तो मैं भी सम्मान की एक तश्तरी अपने सर पर रख सकूँ और गर्व से छाती ठोंककर कह सकूँ .....हाँ , हमने देखे हैं वो आन्दोलन , हम थे उसका हिस्सा .............आह ! कपोल कल्पना के रथ पर सवार मेरी विचारधारा का भ्रमण बिना आधार के कैसे धार पाए जब आँख मूंदकर चलना मैंने अपनी नियति बना लिया है , सवाल करना मैंने सीखा ही नहीं , सिर्फ भीड़ का हिस्सा बनकर रहना ही मेरा  लक्ष्य है ..........

मैंने सीखा ही नहीं चीत्कार करना ............क्या हुआ अगर हो गया कहीं कोई बलात्कार .........रोज का वाकया भर ही तो है ............क्या हुआ जो हो रही है रोज छेड़छाड़ ...........मुझे अपना पेट भरना है क्योंकि मेरे साथ कुछ नहीं हुआ .............आखिर किस किस से लड़ते रहे ............ ऐसे थोड़े जीया जाता है कि कुछ हुआ और चल पड़ो झंडा बुलंद करने ............अरे , मुझे अपने बीवी बच्चे , घर परिवार देखना है कहाँ है मेरे पास इतना वक्त जो इन बातों के लिए परेशां होता फिरूँ ...........ये काम तो नेताओं का है, ये काम तो स्वयंसेवी संगठनों का है , ये काम तो मानवाधिकार आयोग का है ...........और मैं इन सबसे परे हूँ ............आम चेहरा भर ही तो हूँ जिसे अपने दाल रोटी के अलावा सिर्फ वो ही दिखता है जो उसे दिखाया जाता है , वो ही सुनता है जो सुनाया जाता है और कहने भर को वो होता है जो पढवाया जाता है ...............अब ऐसे में कैसे आवाज़ बुलंद करूँ ?

मैं नियति का खेल हूँ , विधना का विधान हूँ जिसकी कोई पहचान नहीं ...............चल पड़ता हूँ जिधर हाँक दिया जाऊँ ............शोर जहाँ सुनाई दे , भीड़ जहाँ दिखाई दे , लहुलुहान जहाँ कोई दिखाई दे , बम विस्फोटों  में मरा  जहाँ कोई दिखाई दे ..............बस वो ही तो एक चेहरा हूँ जो सीख गया हूँ हालातों से समझौता करना , आज मरे कल दूजा सवेरा को अपने जीवन का दर्शन बनाना सीख गया हूँ ...........उधार  के सिन्दूर से मांग भरना सीख गया हूँ क्योंकि मैं नहीं बदल सकता तस्वीर को , क्योंकि हालात मेरे वश में नहीं, क्योंकि सिर्फ कोसना मेरी आदत है , क्योंकि सिर्फ जिरह करने पर मेरा अख्तियार है , क्योंकि लकीर का फ़क़ीर भर हूँ मैं जो वक्त के आईने में कोई तस्वीर देखना ही नहीं चाहता सिवाय अपने , क्योंकि मैं मान बैठा हूँ अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा , क्योंकि अपनी संगठित होने की शक्ति को मैं पहचान नहीं पाया , अपने अधिकार जान नहीं पाया , अपने कर्त्तव्य निभा नहीं पाया ............इसलिए कोई शिकायत नहीं , कोई गिला नहीं ..............मुझे पता है मेरा धर्म ..........हाँ धर्म पर चलने वाला ही मोक्ष पाता  है इसलिए कर आता हूँ हर 12 साल में कुम्भ स्नान और छोड़ आता हूँ पापों की गठरी गंगा के तट पर या कभी भीड़ का हिस्सा बन हादसे का शिकार बन जाता हूँ तो मुक्त कहलाता हूँ क्योंकि तीर्थस्थल पर प्राणों का जाना मुक्ति का संकेत है धर्मग्रंथों में वर्णित है और मैं बन जाता हूँ उस भीड़ का हिस्सा , मिल जाता है मेरी रूह को सुकून फिर चाहे वहां गंडे  ताबीजों के चक्कर में फंस जाऊं या हादसों का शिकार होकर मर जाऊँ ...........मोक्ष पक्का है और यही मेरा धर्म है अब चाहे उसके लिए व्यवस्था पर दोष लगाना पड़े मगर मैं खुद को धर्म विरुद्ध कैसे सिद्ध कर सकता हूँ ...........आखिर धर्म पर ही तो ये धरा टिकी है , आखिर धर्म ही तो हमारी संस्कृति की पहचान है और मैं उससे विमुख होने का पाप कैसे अपने सर ले सकता हूँ ...............फिर चाहे वहाँ कितनी ही अव्यवस्था फैले, चाहे सुगम साधन न हों तब भी मेरी धार्मिकता में कोई कमी नहीं आती , मैं पढ़ा लिखा होकर भी धर्मभीरु हूँ ............पढाई तो पेट भरने की विद्या है और धर्म मुक्ति की इतना तो जानता हूँ इसलिए कैसे अपने धर्म को तज सकता हूँ ..............मैं इस समाज की वो इकाई हूँ जिसके दम पर ही ये संस्कृति फूल फल रही है ऐसे में कैसे मैं इसमें दोष देख सकता हूँ और अपने सिर पाप ले सकता हूँ .............यही तो है मेरा चेहरा

मुझे पता भी चल जाए अपने अधिकारों का तब भी शॉर्टकट अपनाने से बाज नहीं आता क्योंकि वक्त नहीं है , क्योंकि सीधे रास्ते  जाने पर बहुत सी मुश्किलें हैं इसलिए रिश्वत देने और लेने में विश्वास रखता हूँ और जीवन सुचारू रूप से चलाता हूँ ..........आदि हो गया हूँ इन बातों का इसलिए फर्क नहीं पड़ता ..............क्या फायदा उस राह  जाने का जो वक्त पर काम ही न हो पाए उससे अच्छा है इस हाथ दे और उस हाथ ले .............कोई झंझट ही नहीं और वक्त पर काम भी हो गया सीख चुका हूँ काम निकलवाना ............. अब एक मेरे कुछ करने से सारी  व्यवस्था तो बदलने वाली है नहीं जो मैं उसके खिलाफ चलकर अपना समय बर्बाद करूँ ..............मेरी आवाज़ तो नक्कारखाने में तूती  की आवाज़ भर है किसी के खिलाफ शिकायत लेकर जाऊँगा तो उलटे मुझे ही अपना गला छूडाना महंगा पड़ेगा और जिसके खिलाफ लेकर जाऊँगा वो चैन से सोयेगा तो क्या फायदा ऐसा कदम उठाने का जिसमे खुद की जान ही सांसत में पड़ जाए इसलिए अपने अधिकारों को जानता हूँ और अपना कर्त्तव्य निभा देता हूँ एक अंगूठा लगाकर क्योंकि तस्वीर का जमा गुना तय करने वाला मैं कौन ............राजनितिक परिदृश्य के पीछे का चेहरा मैं नहीं होता , मैं नहीं लगाता  वहाँ बोलियाँ, मैं नहीं खरीदता वहाँ वोट तो क्यों सोचूँ और अपना वक्त बर्बाद करूँ ............मैं तो अधिकार और कर्त्तव्य निभा देता हूँ बाकि तो खरीद फरोख्त की दुनिया में मुझे क्या लेना देना कोई आये कोई जाए .........मेरी तस्वीर नहीं बदलनी, मेरा मुकाम नहीं बदलना , मेरा चेहरा नहीं बदलना ,,,,,,,,,,,,,मैं भीड़ हूँ, भीड़ का हिस्सा हूँ जो भीड़ में गुम  हो जाता हूँ और भीड़ के साथ ही चलता हूँ ..............फिर क्या फर्क पड़ता है मैं कुछ बोलूँ, कहूँ  या लिखूँ क्योंकि वक्ता नहीं, श्रोता हूँ ...........त्रासदियों , नाकामियों, हताशाओं  का वाहक !!!

7 टिप्‍पणियां:

Tamasha-E-Zindagi ने कहा…

आपकी यह पोस्ट आज के (२७ मार्च, २०१४) ब्लॉग बुलेटिन - ईश्वर भी वेकेशन चाहता होगा ? पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

स्वगत को इंगित करते हुए अच्छा आलेख लिखा है आपने।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

एक सच सबका !

शारदा अरोरा ने कहा…

बहुत सुन्दर वंदना जी ...इसी चीत्कार को तो अभिव्यक्ति नहीं दे पाता इंसान ...और न समझ ही पाता है ....आम से खास बनने की प्रक्रिया कोई साधारण नहीं होती ...

आशीष अवस्थी ने कहा…

बहुत बढ़िया लेखन , आदरणीय वंदना जी धन्यवाद व स्वागत है मेरे लिंक पे -
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Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत बढिया वंदना जी

Neetu Singhal ने कहा…


हृद व्रण उद्गार भरे तलवार दो धारी लिखती है..,
कलम उदर अंगार भरे चिलक चिंगारी लिखती है.....

हृद व्रण = घायल ह्रदय
चिलक = चमक पीड़ा पूर्वक