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बुधवार, 12 मार्च 2014

ले तेरे शहर से आज हम अंजान हो गये

कोई भीगा हो तो जानेगा गीलेपन का अहसास
और यहां तो जंगल के जंगल रेगिस्तान हो गये

ना तुम वो रहे ना मैं वो रही
बस सब उम्र के बियाबान हो गये

जाने हुये अजनबी और दर्द की लकीरें
सब के सब खुद से अंजान हो गये

जो बोये थे कभी तुमने बबूल के बोर

सब के सब आज मेरी जान हो गये

कभी जीये थे जो इश्क की दास्तानों में

लम्हे वो सभी मेरे बेजुबान हो गये

क्या करे कोई फ़रमाईश क्या करे कोई शिकायत
जितने रकीब थे सभी मेरे मेहमान हो गये

अब जीने की आरज़ू ना मरने का रहा गम

जिस भी कूचे से गुजरे वहीं बदनाम हो गये

जिन रहबरोंसे गुजरा करते थे रात दिन

ले तेरे शहर से आज हम अंजान हो गये

8 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

bahut khoob

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-03-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
आभार

asha sharma dohroo ने कहा…

Khoob

asha sharma dohroo ने कहा…

Sunder Rachna

वाणी गीत ने कहा…

अच्छी ग़ज़ल !

Prakash Jain ने कहा…

behtareen, bahut sundar :-)

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

सुंदर है जी.

Aparna Bose ने कहा…

जो बोये थे कभी तुमने बबूल के बोर
सब के सब आज मेरी जान हो गये.…….वाह.एक से बढ़कर एक शेर