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गुरुवार, 9 मई 2013

मैं हूँ ना ............मैं हूँ ना

एक छटपटाती चीख 
रुँधता गला 
कुछ ना कर सकने की विडंबना 
मुझे रोज कचोटती है 
अंतस को झकझोरती है 
और सैलाब है कि बहता ही नहीं 
आखिर क्यों हुआ ऐसा ?
प्रश्न मेरी व्याकुलता पर 
मेरी असहजता पर 
प्रश्नचिन्ह बन 
मुझे सलीब पर लटका देता है 
और मैं हूँ 
रोज सिसकियों के लावे को 
खौलाती हूँ और जीती हूँ 
क्योंकि .........तुम हो 
हाँ तुम ...........तुम्हारा प्रथम स्पर्श 
तुम्हारी ख़ामोशी 
तुम्हारी मासूमियत 
तुम्हारा बिना कहे सब कह देना 
"मैं हूँ ना "...........मुझे भिगो जाता है 

तुम्हारा बिना कहे जतला देना 
जन्म जन्मान्तर के सम्बन्ध की डोर पर 
हमारा रिश्ता थिरकता है 
जो मोहताज नहीं किसी रस्मी उल्फत का 
कुछ पल की देरी पर असह्य ना होकर 
समीकरण न बिगाडना 
बल्कि खामोश निगाहों से 
लबों की मुस्कान से 
मुझे अहसास कराना .........मैं हूँ ना 

फिर कैसा अजनबीपन 
अजब प्रीत का अजब सम्बन्ध 
हमारे रिश्ते का साक्षी बना 
और फिर एक दिन तुम्हारा देर से आना 
आते ही मुझसे अमरबेल से लिपट जाना 
मेरे वक्षों में खुद को छिपा लेना 
और तुम्हें अपनी बाहों के सुरक्षित घेरे में 
और कस के चिपटा लेना 
तभी कुछ अजनबी आहटों का तुम तक पहुंचना 
कुछ शोर के शोर से मुखातिब होना 
और एक ही पल में 
रेत के महल का धराशायी होना 
यूं ही तो नहीं हुआ था ना 

जब एक आवाज़ कानों को चीरती 
आकाश को फाड़ती , धरती पर जलजला लाती 
मेरी शिराओं में बहते रक्त को जमाती टकराई 
अरे ! ये तो हरिजन है 
अरे ! ये तो गूंगा है 
अरे ! ये तो अनाथ है 
आश्रम से भागा है 
बस जैसे किसी उड़ान भरते पंछी के 
पर कुतर दिए गए हों 
जैसे अचानक हवाओं की साँय साँय 
इतनी बढ़ गयी हो 
कि उसमे सारी कायनात सिमट गयी हो 
ये हरिजन है , ये हरिजन है 
शब्द ने मुझे शिथिल किया 
मेरा बंधन ढीला पड गया 
जो मुझे बोध हुआ 
उफ़ ! एक हरिजन का मैंने स्पर्श किया 
जाने क्यूं अपराधबोध हुआ 

और रात यूं ही सिसकती रही 
कहर बन कर टूटती रही 
बस रूह ही जैसे सजायाफ्ता हुयी 
मगर दिनकर ने तो उदय होना था 
समय ने गतिमान होना था 
मुझे भी तो नियत समय पर 
फिर वहीँ जाना था 
जैसे कोई आवाज़ लगा रहा हो 
जैसे कोई मेरा अपना बुला रहा हो 
जैसे बाग़ चाहे उजड़ जाए 
पतझड़ चाहे कितना तांडव मचाये 
मगर बहार तो फिर है आये 
बहारें न फर्क करती हैं
 हवाएं तो सभी को इकसा गिनती हैं 
खुशबू तो चहूँ  और बिखरती है 
फिर हरिजन हो या ब्राह्मण 
ये सोच जो आश्रम की ड्योढ़ी पर कदम रखा 
मानो गाँधी ने प्रश्नवाचक नज़रों से घूरा 
धरती पाँव से सरकती लगी
मगर मन वेदना तो थी बढ़ी 
खोज में सितारे दौड़ा दिए 
आस्मों को चाँद की तलब जो थी 
तभी मानो कोई ग्रहण था लगा 
जो पता ये चला …………

अब ना चाँद का दीदार होगा 
चाँद को है पूर्ण ग्रहण लगा 
जो न अब कभी उदय हो पायेगा 
वो तो उसी सांझ की बेला में काल का ग्रास था बना 
सुन , सुन्न हो गयी 
खुद से ही शर्मसार हो गयी 
मर्यादा भी मानो कुम्हला गयी 
सिर्फ एक प्रश्न ज़ेहन में अटक गया 
आखिर ऐसा कब तक होगा 
आखिर कब ये भेदभाव ख़त्म होगा 
आखिर कब तक मासूमियत लाचारी 
कठमुल्लाओं की भेंट चढ़ेगी 
कुछ अनुत्तरित प्रश्नों के साथ 
बापू की मूरत थी मौन खड़ी 
बस एक ध्वनि  झकझोर रही है 
मेरी ममता को 
दिलो दिमाग पर हथौड़े सी बज रही है 
मैं हूँ ना ............मैं हूँ ना 

और दूसरी तरफ मेरी ममता 
पर था प्रश्नचिन्ह लगा 
आखिर इसमें उसका क्या दोष था 
वो तो बस एक ममता को व्याकुल 
नन्हा फ़रिश्ता था 
जिसने मेरी ममता को आयाम दिया था 
फिर क्यों न कह सकी मैं 
फिर उसको क्यों न ये विश्वास दिला सकी मैं 
मैं हूँ ना ............मैं हूँ ना 

"और मै बडी हो गयी" काव्य संग्रह की "मासूम यादें" की लेखिका "कमला मोहन दास बेलानी" की कहानी पर आधारित कविता 

13 टिप्‍पणियां:

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .

PAWAN VIJAY ने कहा…

मै हू ना.

कितना भरोसेमन्द वाक्य है.
अच्छी प्रस्तुति

दिगम्बर नासवा ने कहा…

समाज की जड़ता बदल नहीं पाती ... मन के भेड़-भाव भी खत्म नहीं होते ... पता नहीं कैसा समाज बनाया है हमने मिलके ...

Kailash Sharma ने कहा…

दिल को छूती बहुत संवेदनशील और सुन्दर रचना...

Ranjana verma ने कहा…

बेहतरीन... माँ की सुंदर भावपूर्ण रचना.

Ranjana verma ने कहा…

बेहतरीन... माँ की सुंदर भावपूर्ण रचना.

Karupath ने कहा…

अच्‍छी कविता के लिए आभार

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत संवेदनशील और सुन्दर रचना...

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण रचना, शुभकामनाएं.

रामराम.

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

भेद भाव की भावना तभी जा सकती है जब हम खुद से प्रश्न पूछे कि क्या हम भेद भाव करते है ? यदि हैं , तो गाँधी जी जैसे दृढ होकर पहले खद को सुधारना पढ़ेगा .भाषण देने या लिखने पढने से यह दूर नहीं होगा .डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

माँ की ममता भी शायद सामाजिक बंधनों की मोहताज हो जाती है । गहन अभिव्यक्ति

Onkar ने कहा…

सुन्दर कृति