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बुधवार, 19 सितंबर 2012

खरोंच


कल तक जो
आन बान और शान थी
कल तक जो
पाक और पवित्र थी
जो दुनिया के लिए
मिसाल हुआ करती थी
अचानक क्या हुआ
क्यों उससे उसका ये
ओहदा छीन गया
कैसे वो मर्यादा
अचानक सबके लिए
अछूत चरित्रहीन हो गयी
कोई नहीं जानना चाहता
संवेदनहीन ह्रदयों की
संवेदनहीनता की यही तो
पराकाष्ठा होती है
पल में अर्श से फर्श पर
धकेल देते हैं
नहीं जानना चाहते
नकाब के पीछे छुपे
वीभत्स सत्य को
क्योंकि खुद बेनकाब होते हैं
बेनकाब होती है इंसानियत
और ऐसे में यदि
कोई मर्यादा ये कदम उठाती है
तो आसान नहीं होता
खुद को बेपर्दा करना


ना जाने कितने
घुटन के गलियारों में
दम तोडती सांसों से
समझौता करना पड़ता है
खुद को बताना पड़ता है
खुद को ही समझाना पड़ता है
तब जाकर कहीं
ये कदम उठता है
अन्दर से आती
दुर्गन्ध में एक बूँद और
डालनी पड़ती है गरल की
तेज़ाब जब खौलने लगता है
और लावा रिसता नहीं
ज्वालामुखी भी फटता नहीं
तब जाकर परदगी का
लिबास उतारना  पड़ता है
करना होता है खुद को निर्वस्त्र
एक बार नहीं बार बार
हर गली में
हर चौराहे पर
हर मोड़ पर
तार तार हो जाती है आत्मा
लहूलुहान हो जाता है आत्मबल
जब आखिरी दरवाज़े पर भी
लगा होता है एक साईन बोर्ड
सिर्फ इज्जतदारों को ही यहाँ पनाह मिलती है
जो निर्वस्त्र हो गए हों
जिनका शारीरिक या मानसिक
बलात्कार हुआ हो
वो स्वयं दोषी हैं यहाँ आने के
यहाँ बलात्कृत आत्माओं की रूहों को भी
सूली पर लटकाया जाता है
ताकि फिर यहाँ आने का गुनाह ना कर सकें

इतनी ताकीद के बाद भी
गर कोई ये गुनाह कर ही दे
तो फिर कैसे बच सकता है
बलात्कार के जुर्म से
अवमानना करने के जुर्म से
जहाँ पैसे वाला ही पोषित होता है
और मजलूम पर ही जुल्म होता है
ये जानते हुए भी कि साबित करना संभव नहीं
फिर भी आस की आखिरी उम्मीद पर
एक बार फिर खुद को बलात्कृत करवाना
शब्दों की मर्यादाओं को पार करती बहसों से गुजरना
अंग प्रत्यंग पर पड़ते कोड़ों का उल्लेख करना
एक एक पल में हजार हजार मौत मरना
खुद से इन्साफ करने के लिए
खुद पर ही जुल्म करना
कोई आसान नहीं होता

खुद को हर नज़र में
"प्राप्तव्य वस्तु" समझते देखना
और फिर उसे अनदेखा करना
हर नज़र जो चीर देती है ना केवल ऊपरी वस्त्र
बल्कि रूह की सिलाईयाँ भी उधेड़ जाती हैं
उसे भी सहना कुछ यूँ
जैसे खुद ने ही गुनाह किया हो
खरोंचों पर दोबारा लगती खरोंचें
टीसती भी नहीं अब
क्योंकि
जब स्वयं को निर्वस्त्र स्वयं करना होता है
सामने वालों की नज़र में
शर्मिंदगी या दया का कोई अंश भी नहीं दिखता
दिखता है तो सिर्फ
वासनात्मक लाल डोरे आँखों में तैरते
उघाड़े जाते हैं अंतरआत्मा के वस्त्र
दी जाती हैं दलीलें पाक़ साफ होने की
मगर कहीं कोई सुनवाई नहीं होती
होता है तो सिर्फ एक अन्याय जिसे
न्याय की संज्ञा दी जाती है

इतना सब होने के बावजूद भी
मगर नहीं समझा पाती किसी को
नहीं साक्ष्य उपलब्ध करवा पाती
और हार जाती है
निर्वस्त्र हो जाती है खोखली मर्यादा
और हो जाता है हुक्म
चढ़ा दो सूली पर
दे दो उम्र कैद पीड़ित मर्यादा को
ताकि फिर कोई खरोंच ना इतनी बढे
ना करे इतनी हिम्मत
जो नज़र मिलाने की जुर्रत कर सके

आसान था उस पीड़ा से गुजरना शायद
तब कम से कम खुद की नज़र में ही
एक मर्यादा का हनन हुआ था
मगर अब तो मर्यादा की दहलीज पर ही
मर्यादा निर्वस्त्र हुई थी प्रमाण के अभाव में
और अट्टहास कर रही थी सुना है कोई 
आँख पर पट्टी बाँधे हैवानियत की चरम सीमा........

ये खोखले आदर्शों की जमीनों के ताबूत की आखिरी कीलों पर
मौत से पहले का अट्टहास सोच की आखिरी दलदल तो नहीं
किसी अनहोनी के तांडव नृत्य का शोर यूँ ही नहीं हुआ करता ...गर संभल सकते हो तो संभल जाओ

24 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पीड़ासित अभिव्यक्ति।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

मर्यादाओं का क़त्ल ! बढ़िया अभिव्यक्ति !

रश्मि प्रभा... ने कहा…

खरोंचो से असुरों को ख़ुशी होती है...उसके अन्दर संवेदना !वह सिर्फ खुद की सोचता है ...
शब्दों की मर्यादाओं को पार करती बहसों से गुजरना वहशीपन की निशानी है !

Maheshwari kaneri ने कहा…

वाह; बहुत ही भाव पूर्ण अभिव्यक्ति..

सदा ने कहा…

बेहद सशक्‍त लेखन ... आभार

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत ही संवेदनशील लिखा है ... भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...

Unknown ने कहा…

बहुत भावनापूर्ण और दर्दयुक्त रचना |बहुत सुंदर |
मेरी नई पोस्ट:-
मेरा काव्य-पिटारा:बुलाया करो

बेनामी ने कहा…

गहन और संवेदनशील पोस्ट।

ZEAL ने कहा…

पीड़ा देने की रस्म है समाज में ! कारण है असंवेदनशीलता ! अनायास बढती महत्वाकांक्षा ! सब कुछ भोग लेने की लालसा ! इसीलिए बार-बार करीब आती है वीभत्सता , लूटने के लिए मर्यादा को , लज्जित करने के लिए शालीनता को ! निर्वस्त्र करने शील को ! अब तो बस एक ही उपाय है -- साहस करना होगा मर्यादा को , निर्वस्त्र होने के बजाये , आगे बढ़कर निर्वस्त्र कर देना होगा वीभत्सता को ! और वीभत्सता के निर्वसन अंगों को खरोंच कर उसके रिसते हुए घावों पर नमक छिड़ककर आगे बढ़ जाना होगा ....ताकि मर्यादा को निर्वस्त्र करने से पहले 'वीभत्सता' बार-बार सोचे और जार-जार रोये !

pran sharma ने कहा…

SAAF - SUTHREE BHAVABHIVYAKTI KE LIYE
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .

pran sharma ने कहा…

SAAF - SUTHREE BHAVABHIVYAKTI KE LIYE
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .

समयचक्र ने कहा…

भावपूर्ण अभिव्यक्ति..

Ramakant Singh ने कहा…

गहरी पीड़ा भारी वेदना गहरे जख्म क्या कहें कोई तो इन पर मरहम लगानेवाला ?

Pallavi saxena ने कहा…

सशक्त एवं सार्थक अभिव्यक्ति...

रचना दीक्षित ने कहा…

यह एक संवेदनशील व्यक्तित्व ही सोच सकता है. सुंदर कविता.

संध्या शर्मा ने कहा…

संवेदनशील अभिव्यक्ति....

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

गहरे भाव :

सोच दिखायी
जाती है मगर
हर जगह
पहने हुऎ
बहुत ही
कीमती वस्त्र
उसका उतरना
जो देखता है
वो मगर कुछ
कहता कहाँ है !

Ankur Jain ने कहा…

दिल की टीस बयां करती बेहतरीन कविता....

मन के - मनके ने कहा…

गली-मोहल्ले इतने संकरे हो गए हैं कि
मर्यादें रोज़ खरोंची जाती हैं.मर्यादा शब्द
हमारे शब्द-कोषों में ढूंढे नहीं मिलेगा.

Unknown ने कहा…

गहरी पीड़ा भारी वेदना बयां करती बेहतरीन कविता

Rajput ने कहा…

भावनापूर्ण और सशक्‍त लेखन ... आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

यह रचना पढ़ कर एक पिक्चर याद आ गयी .... ज़ख्मी औरत .... शायद आपने भी देखी हो ... सशक्त लेखन

Onkar ने कहा…

संवेदनशील रचना

मनोज कुमार ने कहा…

अच्छे प्रयोग हैं इस कविता में।