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गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

स्त्री विषयक कवितायेँ लिखना ही शोध का विषय तो नहीं हो सकता ना

जब भी मन आहत हुआ
कभी देखकर 
तो कभी सुनकर 
स्त्री की दुर्दशा पर 
भावों को 
कविता में गूंथ दिया
और कर लिया मुक्त
कुछ क्षण के लिए
क्षणिक आवेगों से 
मगर कभी ना किया
कुछ भी स्त्री के 
स्वाभिमान के  लिए
नहीं सोचा 
कैसे उसे उसकी
दुर्दशा से निजात दिलाऊँ
कैसे उसके ज़ख्मों पर
मरहम का फाया लगाऊँ
कौन सा ताबीज गढ़वाऊँ
जिसे पहन 
उसे खुद के लिए भी
जीना आ जाये
कौन सा ग्रह शांत कराऊँ
कौन सा हवन अनुष्ठान कराऊँ
कि स्त्री को स्त्री का 
रूप वापस मिल जाये
वो सिर्फ एक
शो केस में रखी
गुडिया से आगे
साँस लेती 
ज़िन्दगी को जीती
आसमाओं को छूती
एक इबारत बने
कुछ नहीं कर पायी ऐसा
जो समय की शिला पर
अंकित हो सके
नहीं लिख पाई ऐसा
जो स्वर्णाक्षरों में समेटा जा सके
फिर कैसे कह दूं
स्त्री विषयक कविताओं में
मैंने स्त्री से न्याय किया
सिर्फ स्त्री होना या
स्त्री विषयक कवितायेँ  लिखना ही
शोध का विषय तो नहीं हो सकता ना 
सिर्फ दर्द को महसूसना
और कविताओं में उतारना
ही तो स्त्री का संपूर्ण व्यक्तित्व नहीं
दर्द और भावों को 
शब्दों के अलंकरण से
सुसज्जित करना
सिर्फ साहित्य सृजन हो सकता है
या वाहवाही समेटने का एक पुल
मगर जब तक ना 
स्त्री में खोज कर उसका 
ना स्वर्णिम दिया
तब तक 
स्त्री विषयक कवितायेँ लिखना
महज स्वयं को भ्रमित करने का कोरा आश्वासन हुआ ..........

43 टिप्‍पणियां:

mridula pradhan ने कहा…

bahot bhawpoorn.....

शिवम् मिश्रा ने कहा…

सच कहा आपने ... यहाँ लोग बातें बनाना तो जानते है ... पर हकीकत मे अपने कहे और किए के फर्क को नहीं देख पाते है !

Aruna Kapoor ने कहा…

स्त्री विषयक कविताएँ लिखना....महज स्वयं को भ्रमित करनेका कोरा आश्वासन हुआ!...पक्तिओं में यथार्थ झलक रहा है!...सुन्दर रचना, बधाई!

Arun sathi ने कहा…

ओह, आपने तो उघार दिया सबकुछ, सच भी यही है कविता लिखना और साहित्य का सृजन करना जुदा बात है और स्त्री को उसका हक देना जुदा बात...

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया प्रस्तुति।

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत सुन्दर सशक्त रचना....

राजेश उत्‍साही ने कहा…

मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं। हां यह जरूर है कि स्‍त्री की किस वेदना को आप कविता में उतार रही हैं, यह महत्‍वपूर्ण बात है। अगर ऐसे सवाल आपके मन में आ रहे हैं तो यह अच्‍छी बात है। मैं पहले भी कहता रहा हूं कि आपकी अभिव्‍यक्ति अच्‍छी है। आप थोड़ा रूककर सोचकर अपनी कविताओं के लिए विषयों का चुनाव करें तो आप सचमुच स्‍त्री की पीड़ा को स्‍वर दे सकती हैं। स्‍त्री की पीड़ा केवल प्रेम और देह तक सीमित नहीं है। वह उसके घर संसार,काम के परिवेश,प्रेम के इतर संबंधों और दुनिया जहान से जुड़ी है।

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना...

Rakesh Kumar ने कहा…

बहुत कुछ उबल रहा है आपके मन में.
सतह को छोड़,गहराई में आनन्द समाया है.

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आपकी कवितायें हमेशा सच्चाई को साथ लेकर चलती हैं !
आपने यथार्थ को शब्दों में बखूबी ढाला है !
आभार !

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बढ़िया रचना,बहुत सुंदर भाव प्रस्तुति,बेहतरीन पोस्ट,....

MY RECENT POST...फुहार....: दो क्षणिकाऐ,...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच लिखा है ... दरअसल हर कोई लोकप्रियता की तलाश एमिन रहता है ..

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

baat to kuchh sach hai... par kavita ka srijan ho to bhaw mridul ho jata hai aur wo striyon se juda sa mahsoos hone lagta hai, aisa mujhe lagta hai.........!

संध्या शर्मा ने कहा…

यथार्थवादी भावो से भरी गहन रचना... आभार

रश्मि प्रभा... ने कहा…

एक एक शब्द आग के टुकड़े हैं .... जो जलेगा वह न वाहवाह करेगा , जिसने जलकर लिखा - उसे कुछ भी कह लो , फर्क नहीं पड़ेगा . बहुत ही सही परिप्रेक्ष्य है

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

Mukti ka maarg maujood hai.

Apnane ke liye apne hai bhay ko tyagna hota hai.

Nis-sankoch apnayen wh maarg to bharpoor santushti deta hai ,

aatma tak ko, gahraai tak.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

तथ्यात्मक सत्य भी कविता को उतना ही भाता है।

रचना ने कहा…

beautiful poem

देहात की नारी ने कहा…

उत्तम लेखन, बढिया पोस्ट - देहात की नारी का आगाज ब्लॉग जगत में। कभी हमारे ब्लाग पर भी आईए।

मुकेश पाण्डेय चन्दन ने कहा…

bahut hi sundar rachna

Maheshwari kaneri ने कहा…

सुन्दर रचना......बढ़िया प्रस्तुति..

pran sharma ने कहा…

VANDANA JI , AAJKAL AAPKEE KAVITAYEN PADH KAR BAHUT SUKOON
MIL RAHAA HAI . AAP KHOOB LIKH RAHEE HAIN . BADHAAEE AUR
SHUBH KAMNAAYEN .

pran sharma ने कहा…

VANDANA JI , AAJKAL AAPKEE KAVITAYEN PADH KAR BAHUT SUKOON
MIL RAHAA HAI . AAP KHOOB LIKH RAHEE HAIN . BADHAAEE AUR
SHUBH KAMNAAYEN .

shikha varshney ने कहा…

भावपूर्ण अभिव्यक्ति.

प्रेम सरोवर ने कहा…

बहुत ही अच्छी प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

PK SHARMA ने कहा…

sach me bahut accha likha hai vandna ji......
yahan log bate hi banana jante ......

Dr Xitija Singh ने कहा…

आपने सही कहा ... सिर्फ बड़ी बड़ी बातें करने से कुछ नहीं होता ... बहुत कम होते हैं जो .. जो कुछ कहते हैं .. बोलते हैं ... और लिखते हैं .. उस पर अमल भी करते हैं ... बेहतरीन रचना .. !!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

भाव पूर्ण और प्रवाह मयी रचना

Monika Jain ने कहा…

kathni karni ka antar prakat kiya aapne....ek stri vishyak kavita par aapka bhi swagat hai....aasha hai ye kavita tareef pane se jyada logo ki karni badalne mein saksham ho...
welcome to माँ मुझे मत मार

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

राजेश भाई से सहमत।

मनोज कुमार ने कहा…

साहित्य सिर्फ़ सृजन हो सकता है
या वहवाही लूटने का एक पुल
** कथित बुद्दिजीवी इसका जवाब देंगे। आज तो सब जगह दूसरा पक्ष ही दिख रहा है।

Onkar ने कहा…

sach, sirf kathani se kaam nahin chalega

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

sahi bat sirf kavita likhne bhar se kya hoga ik sarthak kadam bhi jaruri hai....

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

केवल स्त्री विषयक कविताएं लिखना स्वयं को भ्रमित करना है।
सही औ दो टूक अभिव्यक्ति।

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

आज 01/04/2012 को आपका ब्लॉग नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक किया गया हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

आज 08/04/2012 को आपका ब्लॉग नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक किया गया हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

सच है स्त्री के स्वाभिमान के लिए कोई कुछ नहीं करता, भले ही उसकी पीड़ा और दशा पर कितना कुछ लिख दिया जाता है. पर ये भी है कि जिसने भी लिखा कम से कम इतनी संवेदना तो है कि कोई इसे समझ सका. सोचने के लिए विवश करती रचना, शुभकामनाएँ.

Unknown ने कहा…

एक दम सही कहा है |

वाणी गीत ने कहा…

दो- टूक !

shyam gupta ने कहा…

बहुत कुछ सत्य कहा है राजेश ने...स्त्री की पीडा को देह से न सम्बोधित किया जाय ...यही सच है ...आप सोच विचार कर लिखें....क्या अर्थ है निम्न बन्द का समझ से परे है...

मगर जब तक् ना
स्त्री में खोज कर उसका
ना स्वर्णिम दिया तब तक..

shyam gupta ने कहा…

सही कहा महेन्द्र जी...कवितायें स्त्री विषयक नहीण---स्त्री-पुरुष विमर्श की होनी चाहिये...आखिर हम स्त्री व पुरुष को अलग अलग देखते ही क्यों हैं...

Saras ने कहा…

बहुत सच्ची , गहन, विचार करने योग्य अनुभूति वंदनाजी !!!

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

और मै राजेश जी के बातों से सहमत नहीं .....

वंदना जी बिल्कुल सही लिखा है आपने | ये कोई जरुरी नहीं की स्त्री की दैहिक पीड़ा ,या प्रेम की पीड़ा ही उसे सताती है अक्सर स्त्रियाँ अपने घर परिवार में लिप्त हो बच्चों पति परिवार की खुशियों में उनकी सुख के लिए अपने इस (दैहिक पीड़ा ,या प्रेम)पीड़ा को भुला देती हैं , पर इन sbke अलावे भी उसे स्त्री होने के अपराध के तौर पर बहुत बार समाज से घर से बार बार , निराश मिलती है चाहत होते हुए काबिलियत होते हुए , सक्षम होते हुए भी यदि ये सारी स्त्रियों की पीड़ा नहीं तो कमसे कम आधी स्त्रियों की पीड़ा तो जरुर है | आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में नारी की ज़िन्दगी बेबस और बदतर है और जो सब कुछ समझ कर भी नहीं समझते तो यही कहावत चरितार्थ होगी "जाके पैर ना फटे बिवाई वो क्या जाने पीर परायी "