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गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

तुम ज़िन्दा हो मुझमे


 




राख कहो या देह

हथेली कहो या लकीर

मगर राखो की कब

होती है तकदीर

कभी पीकर देखा है
घोलकर राख को
देखना एक बार
कोशिश तो करना
पीने की और फिर
जीने की
सच कहती हूँ
अपना वजूद नही पाओगे
राख मे ही तब्दील हो जाओगे
राख मरकर भी अमर होती है
क्योंकि अस्तित्व मे तो रहती है
मगर तुम कहाँ रहोगे
कहाँ खुद को ढूँढोगे
वजूद के साथ
अस्तित्व भी मिट जायेगा
तुम्हारी राख का भी
वारिस ना मिल पायेगा
तब तक जब तक
मै ये ना चाहूँ
और देखो 

मेरी मोहब्बत ने

राख को भी

अर्थ दे दिया

वजूद उसका भी

समेट दिया
एक अस्तित्व मे
हाँ ……राख होकर भी
तुम ज़िन्दा हो मुझमे

ज़िन्दा ऐसे रहा जाता है
और ऐसे रखा जाता है
देखा है कभी खूँ भरा अश्कों का समंदर ?

35 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

शिवम् मिश्रा ने आपकी पोस्ट " तुम ज़िन्दा हो मुझमे " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

वाह ... बेहद उम्दा ... जय हो !

रविकर ने कहा…

फुर्सत के दो क्षण मिले, लो मन को बहलाय |

घूमें चर्चा मंच पर, रविकर रहा बुलाय ||

शुक्रवारीय चर्चा-मंच

charchamanch.blogspot.com

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

bahut jabardsat..vaah.. Vandana ji bahut kuch samet liya hai raakh ne...

ZEAL ने कहा…

raakh hokar bhi tum jinda ho mujhmein...waah !...great expression..

Jeevan Pushp ने कहा…

बेहतरीन प्रस्तुति !

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

जिन्दा रखने का नायाब तरीका ... अच्छी प्रस्तुति

Anavrit ने कहा…

कविता मे एक सच्चे समर्पन भरे उदगार परिनत है ।अच्छा लगा । धन्यवाद ।

वाणी गीत ने कहा…

जिन्दा राख को भी ऐसे रखा जाता है !
वाह !

रश्मि शर्मा ने कहा…

बि‍ल्‍कुल अलग है अंदाज....बहुत खूब।

Kailash Sharma ने कहा…

लाज़वाब प्रस्तुति..आभार

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

कभी पीकर देखा है घोलकर राख को...
अलग ही धरातल की रचना है आदरणीय वंदना जी...

परिदृश्य अलग है लेकिन पढ़ते हुए अशोक चक्रधर की पंक्तियाँ जेहन में घुमड़ने लगी जिसमें वे साम्प्रदायिकता पर प्रहार करते हुए "लहू की आईसक्रीम" खाने की बात करते हैं....

सादर बधाई इस प्रस्तुति के लिए.

बेनामी ने कहा…

बहुत सुन्दर......रख का भी अपना अस्तित्व है |

संध्या शर्मा ने कहा…

मेरी मोहब्बत ने
राख को भी
अर्थ दे दिया...
लाजवाब कर देती है आपकी रचना...आभार

रश्मि प्रभा... ने कहा…

राख मरकर भी अमर होती है क्योंकि अस्तित्व मे तो रहती है मगर तुम कहाँ रहोगे कहाँ खुद को ढूँढोगे वजूद के साथ अस्तित्व भी मिट जायेगा तुम्हारी राख का भी वारिस ना मिल पायेगा तब तक जब तक मै ये ना चाहूँ... bahut gambheer rachna

Amrita Tanmay ने कहा…

वाह वंदना जी , बेहद खुबसूरत लिखा है |

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

राख तो सपनों के जलने के निशानी है।

kshama ने कहा…

Bahut sundar! Phir ek baa alfaaz kee mohtajee hai!

संजय भास्‍कर ने कहा…

Well written! :)

Rajesh Kumari ने कहा…

kuch alag andaaz liye umda prastuti.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

भावप्रणव अभिव्यक्ति।

Amit Chandra ने कहा…

शानदार. बेहद ही उम्दा. प्यार को आपने बेहद ही सुंदर प्रारूप दिया है.

विभूति" ने कहा…

खुबसूरत अल्फाजों में पिरोये जज़्बात....शानदार |

सागर ने कहा…

behtreen khubsurat aur bhaut hi umda....

Smita ने कहा…

behatreen..rachna hai vandana......shubh kamnaayein

Smita ने कहा…

वंदना जी कभी मेरे ब्लॉग पर भी आयें . .....अभी मैंने भी शुरुआत की है .....आपके विचारों से मुझे भी प्रेरणा मिलेगी .....

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बहुत बढ़िया ...गहरा भाव लिए पंक्तियाँ

PK SHARMA ने कहा…

aapki kavita padhkr bus muh se ek hi aawaz aati hai

waahhhhhhhhhhh............

poonam ने कहा…

bahut umdaa..

Satish Saxena ने कहा…

बढ़िया अभिव्यक्ति ...
शुभकामनायें आपको !

मनोज कुमार ने कहा…

राख जब भष्म में तबदील होती है तो उसे मस्तक से लगा लिया जाता है।

सदा ने कहा…

राख होकर भी ... बहुत गहरे उतर गए ये शब्‍द ।

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

बहुत गहन रचना...
राख के ढेर में, शोला भी है चिंगारी भी.

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत सुन्दर लाज़वाब प्रस्तुति..आभार

vidya ने कहा…

बेहतरीन...एक दम अलग विषय और भाव...
वाह वंदना जी.

Unknown ने कहा…

सार्थक !
बहुत अच्छी रचना ! बधाई स्वीकार करें !

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