दोस्तों,
आप सबके द्वारा कहानी और कवितायेँ पसंद करने के लिए बहुत आभारी हूँ ...............आज उसी भाव की एक दूसरी कविता लगा रही हूँ ..........उम्मीद है ये भी आपकी कसौटी पर खरी उतरेगी ...................
लो
आज मैंने
स्वयं ही
खंडित
कर दिया
तुम्हारी
प्रतिमा को
जिसे अपने
मन की
मूरत बनाया
था कभी
यही सज़ा
है मेरी
मेरे
गुनाह की
तुम तो
बा -वफ़ा थीं
मैं ही
वफ़ा ना
कर सका
तुम्हारे
स्वरुप की
निश्छलता
पवित्रता
का
तिरस्कार
किया
जो जोत
जली थी
तन से
ऊपर उठकर
भावनाओं की
बिना किसी
वादे के
बिना किसी
चाहत के
बिना किसी
रस्मो रिवाज़ के
उसी
प्रज्वलित
दीप का
आलोक
ना बन पाया
अपने हाथों
जला दिया
जीर्ण शीर्ण
कर दिया
प्रेमालय को
प्रतिमा पर
ही इक
गहरा दाग
कभी ना
मिटने वाला
लगा दिया
ज़िन्दगी
एक मौका
देती है
सभी को
मोहब्बत का
और मैं
उस मौके को
शायद
हमेशा के लिए
गँवा चुका हूँ
अब खंडित
प्रतिमा के
टूटे टुकड़े
जब- जब
चुभेंगे
शायद
तभी मेरा
कुछ तो
गुनाह
कम होगा
या फिर
वो ही
मेरा
प्रायश्चित
होगा
भूल
गया था
प्रतिमाएं
सिर्फ
पूजित
होती हैं
39 टिप्पणियां:
लो
आज मैंने
स्वयं ही
खंडित
कर दिया
तुम्हारी
प्रतिमा को
---
...
भूल
गया था
प्रतिमाएं
सिर्फ
पूजित
होती हैं
------------------
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
--
आज आपने भाव विभोर होकर अभिनब रचना को जन्म दिया है!
--
बिल्कुत वन्दना जैसी ही है यह रचना!
wah kya baat hai.....
ye kadiya ek se bad kar ek rahee......
insaan insan hee hai bhagvan nahee...........
adbhut lekhan......
aabhar.
wah kya baat hai.....
ye kadiya ek se bad kar ek rahee......
insaan insan hee hai bhagvan nahee...........
adbhut lekhan......
aabhar.
wah kya baat hai.....
ye kadiya ek se bad kar ek rahee......
insaan insan hee hai bhagvan nahee...........
adbhut lekhan......
aabhar.
wah kya baat hai.....
ye kadiya ek se bad kar ek rahee......
insaan insan hee hai bhagvan nahee...........
adbhut lekhan......
aabhar.
भूल
गया था
प्रतिमाएं
सिर्फ
पूजित
होती हैं.... bahut bhavpoorn kavita..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है
वन्दना जी ! प्रेम ही पूजा है
प्रेम और वियोग की सुंदर कल्पना है .... कमाल का लिखा है
.....आभार वंदना जी
bahut khoob Vandana ji...........me to fan ho gaya apka
वंदना जी,
अति सुन्दर .....अंतिम पंक्तियाँ बहुत पसंद आयीं....शुभकामनायें|
... kyaa baat hai !!!
लो
आज मैंने
स्वयं ही
खंडित
कर दिया
तुम्हारी
प्रतिमा को
prem ki gahanta aur pashchataap ka achchha sanyojan..
Ye bheee rachana behad sundar hai...haan! Ham apne haathon se kayi khoobsoorat mauqe gavaan baithte hain...baad me laakh afsos karen,wo dobara nahi milte!
पहली वाली कविता मैंने नहीं पढ़ा था...अभी दोनों पढ़ लिया :)
ज़िन्दगी
एक मौका
देती है
सभी को
मोहब्बत का
और मैं
उस मौके को
शायद
हमेशा के लिए
गँवा चुका हूँ ....
भूल
गया था
प्रतिमाएं
सिर्फ
पूजित
होती हैं....
पश्चाताप कि आग में झुलसते प्रेमी की भावनाओं कि बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...आभार
bahut bhavpur kavita....
3/10
साधारण पोस्ट
दिल का स्टेटमेंट अच्छा लगा
कविता के शुरू में जो प्रेमी अपनी प्रेमिका की प्रतिमा खंडित कर देता है और पश्चाताप करता हुआ अंत में अंत में उसी प्रतिमा को 'पूजित' कहता है.
यह प्रेमी पात्र कदम कदम पर खुद को गुनाहगार मानता है और प्रेमिका के सामने खुद को तुच्छ मानते हुए खुद को कोसता है.जिस प्रेमिका को पूजित कहता है,उसी की मूरत को तोड़ देता है.
प्रेमिका को न्यायोचित,उदात्त,महान साबित करने के लिए जिस निरीह पुरुष की कल्पना आपने गढा है, वो तारीफे काबिल है.आपकी कविता के पीछे खडा मनोविज्ञान भी बेहद प्रशंसनीय है.
वंदना जी,मुझे प्रेम और कविता की समझदारी बहुत कम है.इसलिए आपकी कविता पर आंखमूंदकर वाह वाह नहीं कर पाता.
आजकल ब्लॉग पर कुछ इस तरह की टिप्पणियाँ ब्लॉगर देते हैं:बहुत सुन्दर, क्या लिखा है,सुन्दर अभिव्यव्क्ति आदि आदि.वंदना जी,ऐसे प्रशंसक कविता के लिए घातक हैं और आत्म मुग्धता के भ्रम में झोंक देते हैं
आखिर में,दुस्साहस के लिए क्षमा चाहता हूँ.
वंदना जी,सच्ची मानवता का प्रेम वहीँ है, जिस ह्रदय में अथाह करुणा और क्षमा है.
लो
आज मैंने
स्वयं ही
खंडित
कर दिया
तुम्हारी
प्रतिमा को
khuddari hai in panktiyon me
लो
आज मैंने
स्वयं ही
खंडित
कर दिया
तुम्हारी
प्रतिमा को
---
...
भूल
गया था
प्रतिमाएं
सिर्फ
पूजित
होती हैं
प्रेम और प्रायश्चित, प्रेम एवं बलिदान -त्याग सर्वस्व को होम कर देने की भावना कोई नयी नहीं है, ..हो भी नहीं सकती... लेकिन इस भावना को जो उंचाई, जो उत्कर्ष और आपने अपनी रचना के माध्यम से दिलाया है वह न केवाल अनुकरणीय और प्रेरक है अपितु इक मील का पत्थर भी बनेगा. और बनाना भी चाहिए क्योकि प्यार करना सरल है, सरल इस अर्थ में की वह हो जाता है, आप करते नहीं. बुद्धि - विवेक से वह लभ्य भी नहीं है, लेकिन प्यार को असफल न होने देने में ही उसकी पराकाष्ठा है. जीवन जब प्रतिकूल परिस्थितियों में जब भी यह प्रेम असफल होता है अपनी त्याग -तपस्या - समर्पण और बलिदान से पूर्णता को पहुचाता है. आपकी रचना में पवित्र प्रेम के इसी स्वरुप का न केवल गुणगान अपितु व्यवहार में चरितार्थ भी किया गया है. एक -एक शब्द मन की गाह्राइयो में यों उतारता गया जैसे यह समस्या किसी और की नहीं अपनी निजी, वैयक्तिक है......और यही इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता है. बहुत ही मार्म्स्परसी कविता के लिए ढेर सारी बढ़ियाँ और शुभकामनाएं......
लो
आज मैंने
स्वयं ही
खंडित
कर दिया
तुम्हारी
प्रतिमा को
---
...
भूल
गया था
प्रतिमाएं
सिर्फ
पूजित
होती हैं
प्रेम और प्रायश्चित, प्रेम एवं बलिदान -त्याग सर्वस्व को होम कर देने की भावना कोई नयी नहीं है, ..हो भी नहीं सकती... लेकिन इस भावना को जो उंचाई, जो उत्कर्ष और आपने अपनी रचना के माध्यम से दिलाया है वह न केवाल अनुकरणीय और प्रेरक है अपितु इक मील का पत्थर भी बनेगा. और बनाना भी चाहिए क्योकि प्यार करना सरल है, सरल इस अर्थ में की वह हो जाता है, आप करते नहीं. बुद्धि - विवेक से वह लभ्य भी नहीं है, लेकिन प्यार को असफल न होने देने में ही उसकी पराकाष्ठा है. जीवन जब प्रतिकूल परिस्थितियों में जब भी यह प्रेम असफल होता है अपनी त्याग -तपस्या - समर्पण और बलिदान से पूर्णता को पहुचाता है. आपकी रचना में पवित्र प्रेम के इसी स्वरुप का न केवल गुणगान अपितु व्यवहार में चरितार्थ भी किया गया है. एक -एक शब्द मन की गाह्राइयो में यों उतारता गया जैसे यह समस्या किसी और की नहीं अपनी निजी, वैयक्तिक है......और यही इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता है. बहुत ही मार्म्स्परसी कविता के लिए ढेर सारी बढ़ियाँ और शुभकामनाएं......
प्रेम और प्रायश्चित, प्रेम एवं बलिदान -त्याग सर्वस्व को होम कर देने की भावना कोई नयी नहीं है, ..हो भी नहीं सकती... लेकिन इस भावना को जो उंचाई, जो उत्कर्ष और आपने अपनी रचना के माध्यम से दिलाया है वह न केवाल अनुकरणीय और प्रेरक है अपितु इक मील का पत्थर भी बनेगा. और बनाना भी चाहिए क्योकि प्यार करना सरल है, सरल इस अर्थ में की वह हो जाता है, आप करते नहीं. बुद्धि - विवेक से वह लभ्य भी नहीं है, लेकिन प्यार को असफल न होने देने में ही उसकी पराकाष्ठा है. जीवन जब प्रतिकूल परिस्थितियों में जब भी यह प्रेम असफल होता है अपनी त्याग -तपस्या - समर्पण और बलिदान से पूर्णता को पहुचाता है. आपकी रचना में पवित्र प्रेम के इसी स्वरुप का न केवल गुणगान अपितु व्यवहार में चरितार्थ भी किया गया है. एक -एक शब्द मन की गाह्राइयो में यों उतारता गया जैसे यह समस्या किसी और की नहीं अपनी निजी, वैयक्तिक है......और यही इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता है. बहुत ही मार्म्स्परसी कविता के लिए ढेर सारी बढ़ियाँ और शुभकामनाएं......
गहन भावों को उकेरा है...इसे बरकरार रखें...बधाई.
प्रेम और प्रायश्चित, प्रेम एवं बलिदान -त्याग सर्वस्व को होम कर देने की भावना कोई नयी नहीं है, ..हो भी नहीं सकती... लेकिन इस भावना को जो उंचाई, जो उत्कर्ष और आपने अपनी रचना के माध्यम से दिलाया है वह न केवाल अनुकरणीय और प्रेरक है अपितु इक मील का पत्थर भी बनेगा. और बनाना भी चाहिए क्योकि प्यार करना सरल है, सरल इस अर्थ में की वह हो जाता है, आप करते नहीं. बुद्धि - विवेक से वह लभ्य भी नहीं है, लेकिन प्यार को असफल न होने देने में ही उसकी पराकाष्ठा है. जीवन जब प्रतिकूल परिस्थितियों में जब भी यह प्रेम असफल होता है अपनी त्याग -तपस्या - समर्पण और बलिदान से पूर्णता को पहुचाता है. आपकी रचना में पवित्र प्रेम के इसी स्वरुप का न केवल गुणगान अपितु व्यवहार में चरितार्थ भी किया गया है. एक -एक शब्द मन की गाह्राइयो में यों उतारता गया जैसे यह समस्या किसी और की नहीं अपनी निजी, वैयक्तिक है......और यही इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता है. बहुत ही मार्म्स्परसी कविता के लिए ढेर सारी बढ़ियाँ और शुभकामनाएं......
प्रेम और प्रायश्चित, प्रेम एवं बलिदान -त्याग सर्वस्व को होम कर देने की भावना कोई नयी नहीं है, ..हो भी नहीं सकती... लेकिन इस भावना को जो उंचाई, जो उत्कर्ष और आपने अपनी रचना के माध्यम से दिलाया है वह न केवाल अनुकरणीय और प्रेरक है अपितु इक मील का पत्थर भी बनेगा. और बनाना भी चाहिए क्योकि प्यार करना सरल है, सरल इस अर्थ में की वह हो जाता है, आप करते नहीं. बुद्धि - विवेक से वह लभ्य भी नहीं है, लेकिन प्यार को असफल न होने देने में ही उसकी पराकाष्ठा है. जीवन जब प्रतिकूल परिस्थितियों में जब भी यह प्रेम असफल होता है अपनी त्याग -तपस्या - समर्पण और बलिदान से पूर्णता को पहुचाता है. आपकी रचना में पवित्र प्रेम के इसी स्वरुप का न केवल गुणगान अपितु व्यवहार में चरितार्थ भी किया गया है. एक -एक शब्द मन की गाह्राइयो में यों उतारता गया जैसे यह समस्या किसी और की नहीं अपनी निजी, वैयक्तिक है......और यही इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता है. बहुत ही मार्म्स्परसी कविता के लिए ढेर सारी बढ़ियाँ और शुभकामनाएं......
अतीव भावपूर्ण....सुन्दर !!!
भूल
गया था
प्रतिमाएं
सिर्फ
पूजित
होती हैं
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
सुन्दर अभिव्यक्ति!
अति सुन्दर ,वंदना जी !
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना.
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार रचना लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!
बहुत भावपूर्ण और सुन्दर अभिव्यक्ति!
सुन्दर, सरल रचना।
दिल की टूटन में डूब कर लिखी गयी एक भाव भरी अभिव्यक्ति. सुंदर एहसासों के शब्द दे कर रचना को मुखरित किया है.
बहुत ही गहरे भावों को उकेरा है...
सोचने को विवश करती मर्मस्पर्शी रचना
आपकी कविताओं के भाव हमेशा कुछ ना कुछ सोचने को मजबूर कर ही देते हैं... आज भी वही किया..
गहन पश्चाताप के भाव का परिद्रश्य बड़ी सुन्दरता से प्रस्तुत किया आपने इस रचना में ...
अब खंडित
प्रतिमा के
टूटे टुकड़े
जब- जब
चुभेंगे
शायद
तभी मेरा
कुछ तो
गुनाह
कम होगा
ab prayshchit to karna hi hoga ...sundar abhibyakti
लो
आज मैंने
स्वयं ही
खंडित
कर दिया
तुम्हारी
प्रतिमा को
जिसे अपने
मन की
मूरत बनाया
था कभी
यही सज़ा
है मेरी
मेरे
गुनाह की
बहुत खूब ... दिल के ज़ज्बात को शब्द दे दिए ....
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