मेरे अपने
कौन ?
पति
बेटा
या बेटियाँ
कौन हैं
मेरे अपने ?
ता-उम्र
हर रिश्ते में
अपना
अस्तित्व
बाँटती रही
ज़िन्दगी भर
छली जाती रही
मगर उसमे ही
अपना सुख
मानती रही
पत्नी का फ़र्ज़
निभाती रही
मगर कभी
पति की
प्रिया ना
बन सकी
मगर उसके
जाने के बाद
भी कभी
होंसला ना
हारती रही
माँ के फ़र्ज़
से कभी
मूँह ना मोड़ा
रात -दिन
एक किया
जिस बेटे
के लिए
ज़माने से
लड़ गयी
वो भी
एक दिन
ठुकरा गया
उस पर
सठियाने का
इल्ज़ाम
लगा गया
उसकी
गृहस्थी की
बाधक बनी
तो भरे जहाँ में
अकेला छोड़
दूर चला गया
पति ना रहे
बेटा ना रहे
तो कम से कम
एक माँ का
आखिरी सहारा
उसकी बेटियां
तो हैं
इसी आस में
जीने लगती है
ज़हर के घूँट
पीने लगती है
मगर एक दिन
बेटियाँ भी
दुत्कारने
लगती हैं
ज़मीन- जायदाद
के लालच में
माँ को ही
कांटा समझने
लगती हैं
रिश्तों की
सींवन
उधड़ने लगी
आत्म सम्मान
की बलि
चढ़ने लगी
अपमान के
घूँट पीने लगी
जिन्हें अपना
समझती थी
वो ही गैर
लगने लगी
जिनके लिए
ज़िन्दगी लुटा दी
आज उन्ही को
बोझ लगने लगी
उसकी मौत की
दुआएँ होने लगी
और वो इक पल में
हजारों मौत
मरने लगी
कलेजा फट
ना गया होगा
उसका जिसे
भरे बाज़ार
लूटा हो
अपना कहलाने
वाले रिश्तों ने
वक्त और किस्मत
की मारी
अब कहाँ जाये
वो बूढी
दुखियारी
लाचार
बेबस माँ
जिसका
कलेजा बींधा
गया हो
दो मीठे
बोलों को
जो तरस
गयी हो
व्यंग्य बाणों
से छलनी
की गयी हो
हर सहारा
जिसका
जब टूट जाये
दर -दर की
भिखारिन
वो बन जाए
फिर
कहाँ और
कैसे
किसमे
किसी
अपने को
ढूंढें ?
34 टिप्पणियां:
कभी हालात ऐसे भी हो जाते हैं..यही जीवन है..हर हाल में जीना होता है...
कविता भीतर तक हिला गई...
कलेजा फट
ना गया होगा
उसका जिसे
भरे बाज़ार
लूटा हो
अपना कहलाने
वाले रिश्तों ने
रिश्तों का सच तो यही हैं. अपने भी सपने में डराने लगते हैं.
मेरे अपने
कौन ?
पति
बेटा
या बेटियाँ
कौन हैं
मेरे अपने ?
---------
नारी की व्यथा के विविध आयामों को आपने एक सशक्त रचना के माध्यम से प्रकट किया है!
--
सब मिथ्या है.
इतने सारे खूबसूरत एहसास एक साथ ...
कैसे समेटे इन्हें एक टिप्पणी में
बहुत ख़ूबसूरत हमेशा की तरह ...!
सच्चाई को वयां करती हुई रचना , बधाई
ही ख़ूबसूरत रचना...दिल में उतर गयी आपकी यह रचना...
माने तो सभी अपने हैं ना माने तो कोई नहीं...
प्यार बांटते चलें उसके आपस मिलने की इच्छा ना करें...
मेरे ब्लॉग में इस बार...ऐसा क्यूँ मेरे मन में आता है....
वंदना जी,
शानदार शाहकार....मुझे ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं है .....आपके ब्लॉग पर मेरे द्वारा पड़ी गयी आपकी ये रचना अब तक की सर्वश्रेष्ठ रचना है| इसके लिए आप बधाई की पात्र हैं.....शुभकामनाये|
दूसरी बात.....मेरा नजरिया ये है की अगर तुम अपने न बन पाए .....स्वयं को न समझे स्वयं से प्रेम न किया ..........तो दूसरों से ये आशा क्यों? कोई किसी के साथ नहीं......ये अंतिम और सर्व सत्य है|
Padhke rooh tak kaanp gayee...kaisa bhayankar dardnaak atstitv hoga aisa!
सशक्त रचना.
दुर्गा नवमी एवम दशहरा पर्व की हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं.
रामराम.
.
भावुक कर देने वाली रचना है। एक स्त्री का जीवन शायद ऐसा ही होता है।
.
maarmik abhivyakti!
sach hai...
sab swarth ke rishte hain.. apna koi nahi!
regards,
5/10
ह्रदय-स्पर्शीय पोस्ट
यह सीधा-सीधा गद्य लेखन है
जबरदस्ती कविता का रूप क्यूँ दिया है
यह बात समझ के बाहर है. गद्य में यही भाव उजागर हो सकते थे शायद इससे ज्यादा असरदार तरह से.
जब अपने गैर हुए तो गैर भी अपने हो सकते हैं :)
ता-उम्र
हर रिश्ते में
अपना
अस्तित्व
बाँटती रही
ज़िन्दगी भर
छली जाती रही
मगर उसमे ही
अपना सुख
मानती रही
यही तो आज के जीवन का यथार्थ है...किस से कहे वह अपना दुखड़ा ...बहुत ही भावुक शब्द चित्र..बधाई.
कलेजा फट
ना गया होगा
उसका जिसे
भरे बाज़ार
लूटा हो
अपना कहलाने
वाले रिश्तों ने
"अपनेपन की खोज" बहुत मार्मिक. बहुत ही भावुक कर गई कविता .
वंदना जी ! बहुत कुछ खा गईं आज आप .परन्तु हम रिश्तों से उम्मीद ही क्यों रखते हैं...
कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं
ये जीवन है ,इस जीवन का यही है यही है रंग रूप.
ये ही जीवन है वंदना जी ... और रिश्ते ऐसी चीज़ है जिनके लिए हम जीते हैं और ये कब साथ छोड़ जायें पता नहीं ...आपकी रचना दिल की गहराईयों तक उतरी ...
आज के व्यवसायिक और उपभोगता युग में रिश्ते मतलब के ही रह गए हैं ।
इस समस्या को अच्छा उजागर किया है ।
यहाँ अकेले आये हैं और अकेले जाना है।
भारतीय समाज में औरत के मन की व्यथा को उकेरती बहुत सुन्दर पंक्तियाँ !
sundar evam sachchee kavita...
haan! kuch ke jeevan ka sach hai...kita dukhad hai ye...sach takleef hi kyon deta hai hamesha?
यही है जीवन की सच्चाई, जो हम बदल नहीं सकतें!...यथार्थ को चित्रित करती रचना!
आपकी यह रचना भी हमेशा की ही तरह शशक्त सार्थक एवं प्रभावी है जिसपर अधिक कह पाना मुझ अकिंचन के लिए संभव नहीं !!
आपके सार्थक लेखन को अनवरत बनाये रखने हेतु अशेष शुभकामनायें !!
आजकल की तेज रफ़्तार जीवन शैली और स्वार्थों पर टिकी संबंधों के समीकरणों का दंश और अभिशाप हमेशा ही स्त्रियों के हिस्से आता है जो अपने कुल परिवार और परंपरा के नाम पर अपना पूरा जीवन होम कर देती है और अपना सर्वस्व लुटाने के बाद भी उपेक्षित और एकाकी रह जाती है जिस के हाथों लगता है सिर्फ़ शून्य और सिफ़र. स्त्री जीवन की विडंबनाओं को उजागर करती एक संवेदनशील रचना. आभार.
सादर
डोरोथी.
जिन्दगी भर छली जाती रही ,
मगर उसमें ही अपना सुख मानती रही .
विजयादशमी पर्व की बधाई !!!
सच कई बार ऐसे हालत हो जाते हैं कि आदमी इन सब आब्तों को सोचने पर विवश हो जाता है।
यही सब की जीवन की सच्चाई है. और यही हमारी नयी पीढ़ी की देंन जिसे वो अपनों के फ़र्ज़ के बदले में क़र्ज़ के रूप में चुका रही है .
कलेजा फट ही जाता है जब अपने सब बेगाने हो जाते हैं । दर्द भरी प्रस्तुति ।
... संवेदनशील रचना !
वंदना जी !! आपकी कविता पढ़ कर मेरा कलेजा फट आया ... बहुत ही भीतर तक हिला देने वाली माँ की पीड़ा... क्यूं आज इतना अपेक्षित हो जाता है हमारा बुजुर्ग .. हमारी माँ .. बहुत दुखद...
विजयदसमी पर बुराई के खात्मे का आह्वाहन करते हुवे में आपको शुभकामनाये और दश्हेरा की बधाई देती हूँ.. ..
निराला जी ने लिखा है जो अमृत बाटता है अन्त मे उसके लिए वि’ा ही बचता है।
बहुत सुन्दर रचना है, हर स्त्री की यही कहानी है।
जीवन चलने का नाम! बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
बेटी .......प्यारी सी धुन
एक टिप्पणी भेजें