पत्थर हूँ ना
खण्ड- खण्ड
होना मंजूर
पर पिघलना
मंजूर नहीं
स्थिर , अटल
रहना मंजूर
पर श्वास , गति
लय मंजूर नहीं
पत्थर हूँ ना
पत्थर- सा
ही रहूँगा
अच्छा है
पत्थर हूँ
कम से कम
किसी दर्द
आस , विश्वास
का अहसास
तो नहीं
कहीं कोई
जज़्बात तो नहीं
किसी गम में
डूबा तो नहीं
किसी के लिए
रोया तो नहीं
किसी को धोखा
दिया तो नहीं
अच्छा है
पत्थर हूँ
वरना
मानव
बन गया होता
और स्पन्दनहीन बन
मानव का ही
रक्त चूस गया होता
अच्छा है
पत्थर हूँ
जब स्पन्दनहीन
ही बनना है
संवेदनहीन
ही रहना है
मानवीयता से
बचना है
अपनों पर ही
शब्दों के
पत्थरों से
वार करना है
मानव बनकर भी
पत्थर ही
बनना है
तो फिर
अच्छा है
पत्थर हूँ मैं
43 टिप्पणियां:
JI BAHUT HI SHAANDAAR!PATTHAR NE TO YE KABHI SOCHA BHI MAHI HOGA KI AISA BHI HO SAKTA HAI KYA...?
KYUNWAR JI,
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!!
मानव बनकर भी
पत्थर ही
बनना है
तो फिर
अच्छा है
पत्थर हूँ मैं
पत्थर हूँ ना
खण्ड- खण्ड
होना मंजूर
पर पिघलना
मंजूर नहीं
....vah, bahut sundar rachnaa. subhakaamanaayen.
bahut jyada khoobsoorat...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
सुन्दर रचना ! सही है कि पत्थर भी आज के इन्सान से अच्छा है ! अच्छे कलाकार के हाथ में पत्थर भी तराशकर ताजमहल बना दिया जा सकता है, पर इन्सान को कितना भी समझाओ, वो नहीं सुधरने वाला ।
चंद शब्दों में कितनी गहरी बात कह गईं.......बहुत सुन्दर !!
काश!! जैसा हम शब्दों में कह देते हैं-पत्थर हूँ न!!
हो भी जाते तो कितना सुकून पाते.
बहुत उम्दा रचना!
पत्थर हूँ ना
खण्ड- खण्ड
होना मंजूर
पर पिघलना
मंजूर नहीं
पत्थरपन भी तो भा गयी. अंदाज़ जो इतना प्यारा है. और हाँ पत्थर हूँ तो पिघलूँगा नहीं पर संगतरश का इंतजार तो है ही. ----
बहुत सुन्दर लिखा है आपने
होना मंजूर
पर पिघलना
मंजूर नहीं
....vah, bahut sundar rachnaa. subhakaamanaayen.
सुंदर कविता
waah vandna ji bhut khub likha aapne ,,,,
is duniya me insaan hone se achha patthar hona jayad behtar hai ,, kam se kam insaan ki tarah samvednao ki apexa to nahi ki jaati
saadar
praveen pathik
9971969084
patthar ki samvedna ko murtroop de diya aapne
shayad bahut had tak jeevan hone par wah aise hi sochta.
bahut khub
shkaher kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
bahut sunder rachana.
प्यार का पल चाहते पाषाण भी हैं!
इन पहाड़ों में बसे कुछ प्राण भी हैं!
बहुत सुन्दर रचना!
मानव बनकर पत्थर ही होना है तो पत्थर ही होना अच्छा ...
कितनी सच्चाई के साथ स्वीकार किया अपना पत्थर होना ...
अच्छी कविता ...!!
भावनाओं की एक बढ़िया काव्यमय प्रस्तुति...सुंदर रचना...धन्यवाद वंदना जी
पत्थर हूँ ना
खण्ड- खण्ड
होना मंजूर
पर पिघलना
मंजूर नहीं...
स्थिर , अटल
रहना मंजूर
पर श्वास , गति
लय मंजूर नहीं...
बहुत ही सटीक और समझदार कविता और एक-एक उदगार समाज को आइना दिखा रहा है... समाज की सबसे छोटी लेकिन सबसे आवश्यक इकाई होने के कारण मानव की मानसिकता को उधेड़ दिया है आपने...
कुछ लोग हमें भी कह देते हैं कि पत्थर हैं। लेकिन पत्थरों पर ही बर्फ जमती है और चट्टानों से ही झरने फूटते हैं।
मानव बनकर भी
पत्थर ही
बनना है
तो फिर
अच्छा है
पत्थर हूँ मैं
कमाल की पंक्तियाँ हैं....बेहतरीन रचना
Very good.
मेरे पास तो शब्द ही नहीं रह गए. बार बार पढने के बाद भी स्तब्धता टूट नहीं सकी. आपने तो कमाल कर दिया. पत्थर के उदगार जिस तरह आपने व्यक्त किए, मनुष्य और पत्थर की जो तुलना की, उसकी तारीफ शब्दों में, सम्भव नहीं.
कविता किसी अच्छी पत्रिका में प्रकाशन हेतु अवश्य भेजें.
अच्छा है
पत्थर हूँ
कम से कम
किसी दर्द
आस , विश्वास
का अहसास
तो नहीं
कहीं कोई
जज़्बात तो नहीं
एह्स्ससों को बहुत खूबसूरती से लिखा है....बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं ये....
बहुत ही भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी रचना ! सच है पत्थर दिल इंसान से पत्थर ही होना अधिक श्रेयस्कर है ! कम से कम उससे कोई अपेक्षा तो नहीं होती ! पत्थर की उद्विग्नता को बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दी है आपने ! बधाई और शुभकामनायें !
http://sudhinama.blogspot.com
http://sadhanavaid.blogspot.com
मानव तो पत्थर से भी ज़्यादा कठोर हो गया है ... बहुत संवेदनशील रचना है ...
pathar hun
isiliye khamoas hun..
laga sakta nahi koi aag
Vandana ji dwara likha gaya
agnipath hun...
मानव बनकर भी
पत्थर ही
बनना है
तो फिर
अच्छा है
पत्थर हूँ मैं
बहुत सुन्दर रचना!
बहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
अच्छी रचना....
bahut badhiya vandna ji!
is tarah se sochna b ek alag soch hai...acchhi rachna.
आपकी रचनाओं में बहुत परिपक्वता आ रही है वन्दना जी बस थोडी् सी और गहराई आ जाए तो फिर क्या कहने..फिर भी इस सुन्दर रचना के लिये आपका आभार ।।
बेहतरीन अभिव्यक्ति बढ़िया हैं इसके भाव वंदना जी शुक्रिया
पत्थर हूँ ना
sahi kaha aapne
स्पर्श कर गयी ।
ek bahot hi acchi rachna. mujai pasand aye
bahut sundar rachna hai vandana ji. nayi sajja ke sath blog achcha lag raha hai........
बहुत सुन्दर कविता...
************
'पाखी की दुनिया में' पुरानी पुस्तकें रद्दी में नहीं बेचें, उनकी जरुरत है किसी को !
bahut hi achchi kavita.
वंदना जी, मैं पहली बार आपके ब्लॉग पर आया... आपकी रचनाएं पढ़ी... काफी शानदार अभिव्यक्तियाँ हैं आपकी... उम्मीद करता हूँ कि आप ऐसे ही आगे भी शब्दामृत छिड़कते रहेंगी...
"रामकृष्ण"
जब स्पन्दनहीन
ही बनना है
संवेदनहीन
ही रहना है
मानवीयता से
बचना है
अपनों पर ही
शब्दों के
पत्थरों से
वार करना है
मानव बनकर भी
पत्थर ही
बनना है
तो फिर
अच्छा है
पत्थर हूँ मैं
... gazab ki rachna... bahut sunder isse padhkar pathar bhi pighal jayenge... bhavpurn rachna
....बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय रचना,बहुत बहुत बधाई!!!
Bahut ache.. sthir atal rehna manzoor par shwas gati lay manzoor nahi...
Aanad aa gaya!!!
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