पृष्ठ

अनुमति जरूरी है

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लोग से कोई भी पोस्ट कहीं ना लगाई जाये और ना ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

रविवार, 6 अप्रैल 2008

न जाने कहाँ खो गए हम

जाने कहाँ खो गए हम
बहुत ढूँढा पर कहीं मिले हम
जाने कौन से मुकाम पर है ज़िंदगी
हर मोड़ पर एक इम्तिहान होता है
चाहतों के मायने बदल जाते हैं
जिनका इंसान तलबगार होता है
दुनिया की भीड़ में गूम हुयी जाती हूँ
ख़ुद को ढूँढने की कोशिश में
और बेजार हुयी जाती हूँ
क्या कभी ख़ुद को पा सकेंगे हम
इसी विचार में खोयी जाती हूँ

3 टिप्‍पणियां:

vijay kumar sappatti ने कहा…

वंदना जी

आप बहुत अच्छा लिखती है ,

""क्या कभी ख़ुद को पा सकेंगे हम
इसी विचार में खोयी जाती हूँ ""

इन पंक्तियों में जैसे हम सदियों से भटकते रहतें है ..
आप यूँ ही लिखते रहिये , बस यही दुआ है मेरी .

विजय
http://poemsofvijay.blogspot.com/

Dr. Tripat Mehta ने कहा…

bahut bahut sunder.. apki rachna ki aapke wichaaro ki mein to kayal ho gai aaj! shukriya itne sunder wicharon ke liye.. badhai ho aapko...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-09-2014) को "उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए" (चर्चा मंच 1730) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'