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शुक्रवार, 11 जून 2021

बख्श दो

 बख्श दो काल बख्श दो अब तो

जैसे पेड़ों से झरती हैं पत्तियां पतझड़ में
जैसे टप टप टपकते हैं आंसू पीड़ा में
जैसे झरता है सावन सात दिन बिना रुके
कुछ ऐसे लील रहे हो तुम जीवन

वो जो अभी बैठा था महफ़िल में
बीच से उठ चला जाता है अचानक
मगर कहाँ और क्यों?
क्यों जरूरी है महफ़िलों को तेज़ाब से नहलाना?
क्यों जरूरी है हँसते चेहरों पर खौफ की कहानी लिखना?
क्यों जरूरी है मासूमों के सर से साया उठाना?

किसी का जाना, केवल जाना नहीं होता
वो ले जाता है अपने साथ
जीवन के तमाम रंग, खुशबुएँ और गुलाब
पथरीले पथ, काँटों की सेज और ज़िन्दगी की तपिश से
कौन सी नयी इबारत लिखोगे?

चाक दिल से निकलता है बस यही
काल के क्रूर चेहरे पर कोई रेशम फहरा दो
इसे किसी और ब्रह्माण्ड का रास्ता दिखा दो

बस बहुत हुआ - अब रुकना चाहिए ये सिलसिला
बख्श दो काल बख्श दो अब तो

6 टिप्‍पणियां:

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१२-०६-२०२१) को 'बारिश कितनी अच्छी यार..' (चर्चा अंक- ४०९३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

Onkar ने कहा…

सुन्दर रचना

Meena Bhardwaj ने कहा…

सुन्दर सृजन ।

SANDEEP KUMAR SHARMA ने कहा…

किसी का जाना वाकई केवल जाना नहीं होता....बहुत गहरी पंक्तियां और बहुत गहरी रचना।

मन की वीणा ने कहा…

हृदय स्पर्शी !
वेदना का चित्कार सुनाई दे रहा है सृजन में।
अप्रतिम।

PurpleMirchi ने कहा…

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