ये उपकृत करने का दौर है
संबंधों की फाँक पर लगाकर
अपनेपन की धार
अंट जाते हैं इनमें
मिट्टी और कंकड़ भी
लीप दिया जाता है
दरो दीवार को कुछ इस तरह
कि फर्क की किताब पर लिखे हर्फ़ धुंधला जाएं
फिर भी
छुट ही जाता है एक कोना
झाँकने लगता है जहाँ से
संबंधों का उपहार
और धराशायी हो जाती हैं
अदृश्य दीवारें
नग्न हो जाता है सम्पूर्ण परिदृश्य
आँख का पानी
अंततः सोख चुके हैं आज के अगस्त्य
मुँह दिखाई की रस्मों का रिवाज़ यहां की तहजीब नहीं...
13 टिप्पणियां:
अंट जाते हैं इनमें
मिट्टी और कंकड़ भी
लीप दिया जाता है
दरो दीवार को कुछ इस तरह
कि फर्क की किताब पर लिखे हर्फ़ धुंधला जाएं
बेहतरीन रचना
वाणी ... बहुत ख़ूब लिखा है ....
सहुत बढ़िया लिखा।
वाह !बेहतरीन 👌
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ मई २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बेहद भावपूर्ण.
वाह!बहुत खूब!
बहुत सुंदर
भावपूर्ण, सुंदर सृजन।
बहुत बढ़िया
वाकई ये उपकृत करने का दौर है। वर्तमान परिपेक्ष्य को दर्शाती सुन्दर भावपूर्ण रचना आदरणीया ।
बहुत ही सुंदर लिखा है आप मेरी रचना भी पढना
Nice
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