जाने कब गूंगे हुए
एक अरसा हुआ
अब चाहकर भी जुबाँ साथ नहीं देती
अपनी आवाज़ सुने भी गुजर चुकी हैं
जैसे सदियाँ
ये बात
न मुल्क की है
न उसके बाशिंदों की
लोकतंत्र लगा रहा है उठक बैठक
उनके पायतानों पर
और उनके अट्टहास से गुंजायमान हैं
दसों दिशाएँ
उधर
निश्चिन्त हो
आज भी
राघव पकड़ रहा है
बंसी डाले पोखर में मछलियाँ ........
4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-10-2020) को "जीवन है बस पाना-खोना " (चर्चा अंक - 3847) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सुन्दर
Bahut hi Sundar laga.. Thanks..
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bhut hi achhi jankari di hai aapne . thanks
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