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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

आइये फटकारें खुद को

आइये फटकारें खुद को
थोडा झाडें पोंछें
कि
भूल चुके हैं सभी तहजीबों की जुबान

संवेदनशीलता और संवेदनहीनता के मध्य
ख़ामोशी अख्तियार कर रुकें , सोचें, समझें
वक्त बेशक बेजुबान है
मगर जालिम है
नहीं पूछेगा तुमसे तुम्हारे इल्म
धराशायी करने को काफी है उसकी एक करवट

आरोपों आक्षेपों तक ही नहीं हो तुम प्रतिबद्ध
चिंतन मनन से मापी जायेगी तुम्हारी प्रमाणिकता
जानते हो
न वक्त की कोई जुबाँ होती है और न मौत की

ये जानते हुए भी कि
करवटों के भारी शोर तले दब चुकी हैं मुस्कुराहटें
तुम कैसे बजा सकते हो बाँसुरी
जिसमे न सुर हैं न लय न ताल

खुरदुरी सतहों पर चलने वालों
चलना जरा संभल कर
यहाँ घुटने छिलने के रिवाज़ से वाकिफ हैं सभी

ये वक्त का वो दौर है
जहाँ नदारद हैं पक्ष प्रतिपक्ष
और
कल जो हुआ
आज जो हुआ
कल जो होगा के मध्य खड़े हो तुम भी ... पता है न
या तो ठोको वक्त को फर्शी सलाम
या फिर हो जाओ तटस्थ
अन्यथा अगला निशाना तुम भी बन सकते हो
बस यही है
तुम्हारे चिंतन मनन की सही दिशा
खुद की झाड पोंछ का मूलमंत्र




1 टिप्पणी:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

हमेशा की तरह अच्छी कविता